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________________ (19) उद्योत नामकर्म:- जिस कर्म के उदय से उद्यत होता है, वा उद्योत (प्रकाश) किया जाता है, वह उद्योत नामकः । इसका उदय चन्द्र के विमानस्थ, पृथ्वीकाय, एकेन्द्रिय वा जुगनू आदि तिर्यंचों में होता है। मूलूण्हपहा अग्गी आदावो होदि उण्हसहियपहा। आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोओ॥(33) आग के मूल और प्रभा दोनों ही ऊष्ण रहते हैं। इस कारण उसके स्पर्श नामकर्म के ऊष्णस्पर्शनामकर्म का उदय जानना। और जिसकी केवल प्रभा (किरणों का फैलाव) ही ऊष्ण हो उसको आतप कहते हैं। इस आतपनायकर्म का उदय सूर्य के बिम्ब (विमान) में उत्पन्न हुए बादरपर्याप्त पृथ्वीकाय के तिर्यंचकाय के समझना। तथा जिसकी प्रभा भी उष्णता रहित हो उसको नियम से उद्योत जानना। (गो.क.पृ. 14, गा.न. 33) (20) उच्छवास नामकर्म:- जो उच्छ्वास प्राणापान का कारण होता है, वा जिस कर्म के उदय से श्वोसोच्छवास होता है, वह उच्छवास नामकर्म है। (21) विहायोगति नामकर्म:-आकाश में गति का प्रयोजन विहायोगति नामकर्म है। विहाय का अर्थ है- आकाश और आकाश में गमन का कारण विहायोगति नामकर्म। प्रशस्त और अप्रशस्त के विकल्प से विहायोगति दो प्रकार की है। श्रेष्ठ बैल, हाथी आदि की प्रशस्त गति में जो कारण होता है, वह प्रशस्त विहायोगति है और ऊँट, गधा आदि की अप्रशस्त गति में जो कर्म कारण होता है, वह अप्रशस्त विहायोगति है। प्रश्न:- सिद्धगति के प्रति गमन करने वाली आत्मा की और पुद्गल द्रव्यों ____ की जो अनुश्रेणी गति होती है, वह किस कर्म के उदय से होती है? उत्तरः मुक्त जीव और पुद्गलों की गति स्वाभाविक है। प्रश्न:- विहायोगति नामकर्म आकाशगामी पक्षियों में ही है, मनुष्यादि में नहीं क्योंकि मनुष्यादि में आकाशगमनत्व नहीं है ? उत्तरः- विहायोगति नामकर्म आकाशगामी पक्षियों में ही नहीं अपितु सभी प्राणियों में विहायोगति है क्योंकि अवगाहन शक्ति के योग से सभी की आकाश में ही गति होती है। (22) प्रत्येक शरीरः- एक आत्मा के उपभोग के कारण शरीर को प्रत्येक 499 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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