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के आदि के चार बन्ध के हेतु हैं । संयतासंयत के विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं । प्रमत्तसंयत के प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्ध के हेतु हैं । अप्रमत्तसंयत आदि चार
योग और कषाय ये दो बन्ध के हेतु हैं । उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और संयोगकेवली इनके एक योग ही बन्ध का हेतु हैं। अयोगकेवली के बन्ध का हेतु नहीं है।
बन्ध का लक्षण
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्ध: । ( 2 )
The soul owing to its being with passion, assimulates matter which is fit to form karmas. This is bondage.
वह
कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, बन्ध है।
जीव के साथ कर्म बंध होने के लिये पुद्गलों के बंध योग्य गुणों के साथ-साथ जीव में भी बंन्ध होने योग्य गुणों की आवश्यकता अनिवार्य है । प्रत्येक कार्य उपादान कारण (अन्तरंग कारण, मुख्य कारण ) निमित्त कारण (बहिरंग कारण - गौण कारण) के समवाय से ही होता है। अतः कर्म वर्गणा में स्निग्धत्व- रुक्षत्व गुण होने पर भी जीव में स्निग्धत्व ( राग आकर्षण - धन आवेश) रुक्षत्व (द्वेष - विकर्षण ऋण आवेश) गुण नहीं होने पर जीव के साथ कर्मबन्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि जो कार्य जितने कारणों से सम्पादन होता है उसके एक भी कारण के अभाव में वह कार्य नहीं हो सकता है। यदि ऐसा होवे तो सम्पूर्ण कर्म कलंक से रहित सिद्ध भगवान को भी कर्म बन्ध होने लगेगा और वे संसारी हो जायेगें। इतना ही नहीं अमूर्तिक शुद्ध आकाश, धर्म, अधर्म, एवम् काल को भी कर्म बन्ध होने लगेगा और वह भी अशुद्ध होकर संसारी हो जावेगा । परन्तु यह होना कष्ट साध्य नहीं अपितु असंभव ही है।
चुम्बक अपने चुम्बकीय क्षेत्र में स्थित लोह खण्ड को आकर्षित करता है परन्तु उस क्षेत्र में स्थित पत्थर लकड़ी आदि को आकर्षित नहीं करता है । इससे सिद्ध होता कि चुम्बक में आकर्षष करने की शक्ति है तथा लोहे में आकर्षित होकर आने की शक्ति है। उपरोक्त दोनों शक्तियों में से एक भी
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