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पृथिवीकायिक आदि पाँच प्रकार के स्थावर तथा इन छह के जीवों का घात करना तथा स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों और मन के विषयों वृत्ति करना इस तरह बारह प्रकार का असंयम होता है।
आठ शुद्धि तथा क्षमा आदि दश लक्षणों से युक्त धर्म के विषय में जो अनुत्साह है वह सर्वज्ञ भगवान के द्वारा प्रमाद कहा गया है।
भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयनासन, प्रतिष्ठापन और वाक्य के भेद से शुद्धि के आठ भेद हैं। तथा उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से धर्म के दश भेद हैं। इन आठ प्रकार की शुद्धियों तथा दश प्रकार के धर्मों में उत्साह न होना प्रमाद कहलाता है।
प्रमाद का लक्षण
शुद्धयष्टके तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञै प्रमादः परिकीर्तित: 11 ( 10 )
पच्चीस कषाय
सोलह कषाय और नौ नोकषाय कही गई हैं। इनमें जो थोड़ा भेद है
वह नहीं लिया जाता है इसलिए दोनों मिलाकर पच्चीस कषाय कहलाती है। पन्द्रह योग
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स्युर्नोकषाया नवेरिताः ।
षोड़शैव कषायाः ईषद्भेदो न भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥ ( 11 )
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चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग इस प्रकार सब मिलाकर पन्द्रह योग कहे गये हैं ।
चत्वारो हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयम् ।
पञ्च द्वौ च वपुर्योगा योगाः पञ्चदशोदिता: । (12)
इस प्रकार ये मिथ्यादर्शन आदि पाँचों मिलकर या पृथक्-पृथक् बन्ध के हेतु हैं। खुलासा इस प्रकार है- मिथ्यादृष्टि जीव के पाँचों ही मिलकर बन्ध के हेतु हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि
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