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________________ शक्ति के अभाव में परस्पर में आकर्षण एवम् आकर्षित नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार पुद्गल वर्गणा में बन्धने की शक्ति होने पर भी संसारी जीव में बांधने की शक्ति नहीं हो तो कर्म बन्ध नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि, अनादि काल से जीव कर्म बन्ध से सहित होने के कारण मूर्तिक एवम् राग द्वेष से सहित है। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमृतचन्द्र सूरि ने तत्त्वार्थसार में निम्न प्रकार किया है। आचार्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मट्ट सार कर्मकाण्ड में कहे देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्म णोकम्म। पडिसमयं सव्वंगं तत्ताय सपिंडओव्व जलं॥(3) कर्मकाण्ड यह जीव औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से योग सहित होकर ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप होने वाली कर्म वर्गणाओं को तथा औदारिक आदि चार शरीर (1) औदारिक (2) वैक्रियक (3) आहारक (4) तैजस; रूप होने वाली नो कर्म वर्गणाओं को हर समय चारों तरफ से ग्रहण करता है, जैसा कि आग से तपा हुआ लोहे का गोला पानी को सब ओर से अपनी तरफ खींचता है। बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोणपवेसणम् इदरो॥(32) द्रव्यसंग्रह जिस चेतन भाव से कर्म बंधता है वह तो भावबन्ध है, और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर प्रवेशन रूप अर्थात् कर्म और आत्मा के प्रदेशों का एकाकार होने रूप दूसरा द्रव्य बन्ध हैं। उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो॥(175) प्रवचनसार जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह करता है, राग करता 472 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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