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है यथा -
मिच्छत्तहंडसंढाऽसंपत्तेयक्खथावरादावं। सुहुमतियं वियलिंदिय णिरयदुणिरयाउगं मिच्छं॥(95)
(गो. सा. कर्मकाण्ड) 1. मिथ्यात्व 2. हुण्डक संस्थान 3. नपुंसकवेद 4. असंप्राप्तासृपाटिका संहनन 5. एकेन्द्रिय जाति 6. स्थावर 7. आतप 8. सूक्ष्मादि तीन अर्थात् सुक्ष्म, 9. अपर्याप्त 10. साधारण, विकलेन्द्रिय तीन अर्थात् 11. दो इन्द्रिय 12. तीन इन्द्रिय 13. चौ इन्द्रिय 14. नरक गति 15. नरकगत्यानुपूर्वी 16. नरकायु। ये सोलह प्रकृतियाँ हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत समय में इनकी बंध व्युच्छित्ति हो जाती हैं। अर्थात् मिथ्यात्व से आगे के गुणस्थानों में इनका बंध नहीं होता। तत्वार्थ सार में बंध का विशेष वर्णन निम्न प्रकार किया है -
बन्धस्य हेतवः पञ्च स्यर्मिथ्यात्वमसंयम। प्रमादश्च कषायश्च योगश्चेति जिनोदिताः॥(2)
अध्याय 5 पृ.140 मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के पाँच हेतु जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये हैं।
मिथ्यात्व के पाँच भेद ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च।
आज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वैनयिकं भवेत्॥ (3) ऐकान्तिक, सांशयिक, विपरीत, आज्ञानिक और वैनयिक ये मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं। I ऐकान्तिकमिथ्यात्व का लक्षण
यत्राभिसन्निवेशः स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः।
इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते॥ (4) जिसमें धर्म और धर्मी के विषय में 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार का एकान्त अभिप्राय होता है वह ऐकान्तिक मिथ्यात्व कहा जाता है।
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