________________
करता रहता है तब विभिन्न कर्म को बांधता है । मध्यम प्रतिपत्ति से बन्ध के 5 कारण बताये गये हैं । यथा (1) मिथ्यादर्शन: (2) अविरति ( 3 ) प्रमाद (4) कषाय (5) योग
"तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' अर्थाो I तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। मिथ्यादर्शन इससे विपरीत है। अर्थात् "अतत्त्वार्थ श्रद्धानं मिथ्यादर्शनम् " तत्त्वों का श्रद्धान करना या तत्त्वों का श्रद्धान नहीं करना मिथ्यादर्शन है। बन्ध प्रकरण में बन्धों के कारण बतलाते हुए मिथ्यादर्शन को पहले ग्रहण करने का कारण यह है कि मिथ्यादर्शन समस्त बन्ध कारणों में से प्रधान एवं प्रथम कारण है। मिथ्यात्व को आगम शास्त्र में अनंत संसार का कारण होने से अनन्त कहा गया है और उसके साथ रहने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ को अनन्तानुबन्धी कहा गया है। अनादि मिथ्यादृष्टि जब एक बार भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है तब उसका अनन्त संसार का विच्छेद हो जाता है केवल अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परिवर्तन संसार रह जाता है यदि वह चरम शरीरी है तो तद्भव में मोक्ष जा सकता है इसलिए समन्तभद्रस्वामी ने भी कहा है
न सम्यक्त्व समं किंचित्त्रैकाल्ये श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं
-
त्रिजगत्यपि ।
नान्यत्तनूभृताम् ॥ ( 34 )
- र. श्रावकाचार
प्राणियों के तीन कालों और तीन लोक में भी सम्यग्दर्शन के समान कल्याणरूप और मिथ्यादर्शन के समान अकल्याणरूप अन्य वस्तु नहीं है । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद अनेक पाप प्रकृतियों का बंध नहीं होता है,
यथा -
सम्यग्दर्शन
Jain Education International
शुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्द्ररिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका ।। (35)
. सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव व्रत रहित होने पर भी नारक, तिर्यंच, नपुंसक और स्त्रीपने को तथा नीच कुल, विकलांग अवस्था, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होता ।
मिथ्यात्व गुणस्थान के अंत में 16 पाप प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता
For Personal & Private Use Only
467
www.jainelibrary.org