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4. अन्यदृष्टिप्रशंसा - Thinking admiringly of wrong believers; 5. अन्यदृष्टिसंस्तव - Praising wrong believers.
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दृष्टि के पाँच अतिचार हैं:
दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्वार्थ श्रद्धान से विचलित होना, अतिचरण होना अतिचार है। अतिचार और अतिक्रम ये एकार्थवाची हैं। ये शंकादि पाँच अतिचार सम्यग्दर्शन के हैं।
दर्शनविशुद्धि के प्रकरण में निःशंकित, नि:कांक्षित आदि सम्यग्दर्शन के गुण कहे हैं। उनके प्रतिपक्षी शंका आदि पाँच अतिचार । अर्थात् तत्त्व में शंका करना, संसार के भोगों की वाञ्छा करना, मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि करना, मिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा और वचन से संस्तुति करना । प्रश्न- संस्तवन और प्रशंसा में क्या विशेषता है ? उत्तर- मन और वचन के विषयभेद से प्रशंसा और संरावन में भेद है। मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान - चारित्रादि गुणों का मन से अभिनन्दन करना प्रशंसा है तथा वचनों से मिथ्यादृष्टियों के विद्यमान एवं अविद्यमान गुणों का उद्भावन- कथन करना संस्तवन है; यह इन दोनों में भेद है।
यद्यपि सम्यग्दर्शन के अंग आठ बताये हैं और उनके प्रतिपक्षी दोष भी आठ हो सकते हैं, परन्तु इन पाँचों में ही सबका अन्तर्भाव हो जाता है । पाँच व्रतों और सप्त शीलों के पाँच-पाँच अतिचार कहने की इच्छा वाले आचार्य ने 'प्रशंसा' और 'संस्तव' में शेष (वात्सल्य, प्रभावना और स्थितिकरण के विपरीत भाव) का अन्तर्भाव होने से सम्यग्दर्शन के भी पाँच ही अतिचार कहे हैं, इसमें कोई दोष नहीं है ।
यद्यपि यहाँ पर अगारी का प्रकरण है और आगे भी अगारी का प्रकरण रहेगा तथापि इस सूत्र में अगारी - गृहस्थ सम्यग्दृष्टि के अतिचार नहीं बताये हैं क्योंकि यहाँ सम्यग्दृष्टि का ग्रहण उभय (गृहस्थ एवं मुनि) अर्थ के लिए है । अर्थात् पुनः सम्यग्दृष्टि पद का ग्रहण करने से सामान्य सम्यग्दृष्टि (चाहे मुनि हो चाहे गृहस्थ) के ये अतिचार हैं।
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