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इस सल्लेखना में हिंसा के कारणभूत कषाय जिस कारण सूक्ष्म किये जाते हैं इसलिये सल्लेखना को भी अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए कहते हैं।
सल्लेखना का प्रयत्न कब करना चाहिये ?
जरा, रोग और इन्द्रियों की विकलता के कारण अपनी आवश्यक क्रियाओं की हानि होने पर सल्लेखना धारण करनी चाहिये । अर्थात् जिस समय व्यक्ति शरीर को जीर्ण-शीर्ण करने वाली जरा से क्षीण - बल वीर्य हो जाता है और वातादि विकारजन्य रोगों के व्याप्त होने से उसकी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा वह आवश्यक क्रियाओं के परिपालन में असमर्थ हो जाता है, इन्द्रिय बल के नष्ट हो जाने से मृतक के समान हो जाता है, उस समय बुद्धिमान् सावधान व्रती मरण के अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर प्रासुक भोजन - पान और उपवास आदि के द्वारा क्रमश: शरीर को कृश करता है और मरण पर्यन्त अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना धारण करता है, वह उत्तमार्थ का आराधक होता है । अर्थात् जब शरीर और इन्द्रियाँ व्रतों को पालन करने में असमर्थ हो जाती हैं तब ज्ञानी व्रती सल्लेखना धारण करता
है।
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रूजायां च निःप्रतीकारे । तनुविमोचन माहुः सल्लेखनामार्याः ॥
धर्माय
गणधरादिक देव प्रतीकार रहित उपसर्ग: दुष्काल, बुढ़ापा, और रोग के उपस्थित होने पर धर्म के लिए शरीर छोड़ने को सल्लेखना कहते हैं ।
सम्यक दर्शन के पाँच अतिचार
शङ्काकाङ क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टि प्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ।
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There are 5 defects or partial transgressions faRT: which should not be found in a man of right belief.
1. शंका - Doubt, Scepticism;
2. कांक्षा - Desire of Sense pleasures ;
3. fafafanuT- Disqust at anything e.g., with a sick or deformed
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