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________________ कुशीलत्याग का उपदेश ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवंति नहि मोहात् । निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न anet 111011 जो पुरुष चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से अपनी स्त्री मात्र को छोड़ने के लिये निश्चय से नही समर्थ हैं उन्हें भी बाकी की समस्त स्त्रियों का सेवन नहीं करना चाहिये । परिग्रह पाप का लक्षण मूर्च्छा परिग्रह । ( 17 ) Worldly attachment is of Murchha, infatuation (or intoxication through Pramattayoga, in the living or non-living objects of the world.) मूर्च्छा परिग्रह है। बाह्याभ्यन्तर उपधि (परिग्रह) के रक्षण आदि के व्यापार को मूर्च्छा कहते हैं। गाय, भैंस, मणि, मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य परिग्रह के और रागद्वेषादि अभ्यन्तरपरिग्रह के संरक्षण, अर्जन, संस्कारादि लक्षण व्यापार को मूर्च्छा कहते हैं । आभ्यन्तर ममत्व परिणाम रूप मूर्च्छा को परिग्रह कहने पर बाह्य पदार्थों में अपरिग्रहत्व का प्रसंग नहीं देना चाहिये, क्योंकि आभ्यन्तर परिग्रह ही प्रधानभूत है । अर्थात् 'यह मेरा है इस प्रकार का संकल्परूप आध्यात्मिक परिग्रह है, वही प्रधानभूत है अतः मूर्च्छा से मुख्यतया आभ्यन्तर परिग्रह का ग्रहण किया जाता है। उस आभ्यन्तर परिग्रह के ग्रहण करने पर आभ्यन्तर परिग्रहण के कारणभूत गौण रूप बाह्य परिग्रह का ग्रहण तो हो ही जाता है। मूर्च्छा का कारण होने से बाह्य पदार्थ के भी मूर्च्छा व्यपदेश होता है। जैसे " अन्न ही प्राण है" इस प्रकार प्राणों की स्थिति में कारणभूत अन्न - में प्राणों का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार मूर्च्छा का कारण (ममत्व का कारण) होने से बाह्य परिग्रह को भी मूर्च्छा कह देते हैं । अर्थात् कारण में कार्य का उपचार किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only 429 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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