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अभाव होने से वन्दनादि मिथुन कर्म (दो मिलकर वन्दना, स्वाध्याय आदि क्रिया) होने पर भी वह क्रिया मैथुन नहीं कही जा सकती।
अहिंसादि गुणों को बढ़ाने वाला होने से ब्रह्म कहलाता है। जिसका परिपालन करने से अहिंसादि गुणों की वृद्धि होती हैं, वह ब्रह्म कहलाता हैं । ब्रह्म नहीं है या ब्रह्म का अभाव है वह अब्रह्म कहलाता हैं, वह अब्रह्म ही मैथुन है, उस अब्रह्मचारी के हिंसादि दोष पुष्ट होते हैं। क्योंकि मैथुन सेवानाभिलाषी व्यक्ति त्रस, स्थावर जीवों का घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है और सचेतन और अचेतन परिग्रह का संग्रह भी करता है।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी मैथुन का लक्षण निम्न प्रकार से कहा गया हैं।
यद्वेदयरागयोगान्मैथुनमभिधीयते
तदब्रह्म ।
अवतरित तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ।।107।
पुंवेद और स्त्रीवेदरूप रागपरिणाम के सम्बन्ध से जो स्त्री पुरुषों की कामचेष्टा होती है उसको अब्रह्म कहते हैं । वहाँ सब अवस्थाओं में जीवों का वध होने से हिंसा घटित होती है।
मैथुन में हिंसा
हिंस्यते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् । बहवो जीवा योनौ हिंस्यंते मैथुने तद्वत् ॥108॥
जिस प्रकार तिलनाली में तपाये हुए लोहे के छोड़ने पर तिल पीड़े जाते भुन जाते हैं उसी प्रकार योनि में मैथुन करते समय अनेक जीव मारे जाते
हैं
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अनंगरमण निषेध
यदपि
क्रियते
किंचिन्मदनोद्रेकादनंगरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ।।109।
पर भी रागादिक की उत्पत्ति प्रधान होने से हिंसा होती है।
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जो भी कुछ काम के प्रकोप से अनंगक्रीडन आदि किया जाता है वहाँ
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