SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चोरी छोड़ने का उपदेश असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिं। तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यं ॥(106) जो पुरुष कूपजल आदि के हरण करने की निवृत्ति को करने के लिये असमर्थ हैं उन पुरुषों के द्वारा भी दूसरा समस्त बिना दिया हुआ द्रव्य सदा छोड़ देना चाहिये। कुशील का लक्षण मैथुनमब्रह्म। (16) Unchastity is coition (or sexual contact, through Pramattayoga) मैथुन अब्रह्म है। मिथुन (दो) के कर्म वा भाव को मैथुन कहते हैं। स्त्री-पुरुष के परस्पर शरीर के स्पर्श करने में जो राग परिणाम है वही मैथुन है, अर्थात् चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर स्त्री और पुरुष के परस्पर शरीर का सम्मिलन होने से सुख-प्राप्ति की इच्छा से होने वाला जो रागपरिणाम है, वह मैथुन कहलाता . स्त्री-पुरुष के परस्पर शरीर के स्पर्श से ही मैथुन नहीं है अपितु एक में भी मैथुन का प्रसंग है। क्योंकि हाथ, पैर अथवा पुद्गल आदि के संघट्टनादि के द्वारा भी अब्रह्म का सेवन होने पर एक में भी मैथुन होता है, अत: स्त्री-पुरुष का संयोग ही मैथुन सिद्ध नहीं होता (अपितु मिथुन का भाव मैथुन सिद्ध होता है।) अथवा, जिस प्रकार स्त्री और पुरुष को रति के समय शरीर का संयोग होने पर स्पर्शसुख होता है, उसी प्रकार एक व्यक्ति को भी हाथ आदि के संयोग से स्पर्शसुख का भान होता है, दोनों मैथुन तुल्य हैं। इसलिए हस्त संघट्टनादि सम्बन्धी मैथुन भी मुख्य ही हैं, उसमें भी रागद्वेष और मोह की तीव्रता होने से मैथुन शब्द का लाभ है। _ 'प्रमत्तयोगात्' सूत्र में कथित प्रमत्त योग की अनुवृत्ति चली आ रही है, अत: चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से प्रमत्त हुए मिथुन के कर्म को मैथुन कहते हैं। नमस्कारादि क्रिया में प्रमत्तयोग तथा चारित्रमोह कर्म के उदय का 427 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy