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________________ प्रमत्तयोग का अधिकार होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र में होने वाला ममत्व भाव परिग्रह नहीं है। क्योंकि निष्प्रमादी ज्ञान, दर्शन और चारित्रवान व्यक्ति के मोह का अभाव है। अत: निष्प्रमादी व्यक्ति के चारित्र का ममत्व मूर्छा नहीं है और उसके निष्परिग्रहत्व सिद्ध होता है। अथवा, ज्ञानादि तो आत्मा के स्वभाव हैं, अहेय हैं। अत: वे ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि परिग्रह हो ही नहीं सकते। उनमें तो अपरिग्रहत्व है। रागादि तो कर्मोदयजन्य हैं, अनात्म-स्वभाव हैं और हेय हैं। इसलिये इनमें होने वाला ‘ममेद' संकल्प परिग्रह है। अर्थात् रागादि को परिग्रह कहते हैं। परिग्रह ही सर्व दोषों का मूल कारण है। यह परिग्रह ही समस्त दोषों का मूल है। 'यह मेरा है ऐसा संकल्प होने पर ही उसके रक्षण आदि की व्यवस्था करनी होती है और उसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है, उस परिग्रह के लिए झूठ भी बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में भी प्रयत्न करता है, अर्थात् परिग्रहाभिलाषी व्यक्ति सर्व कुकर्म करता है। इस परिग्रह के ममत्व के कारण नरकादि में अनेक प्रकार के दुःख भोगता है, इस लोक में भी निरन्तर दुःख रूपी महासमुद्र में अवगाहन करता है, अर्थात् सैकड़ों दुःख भोगता है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी परिग्रह का लक्षण निम्न प्रकार कहा गया है या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः। मोहोदयादुदीर्णो मूर्छा तु ममत्वपरिणामः ॥(111) जो यह मूर्छा है यह ही परिग्रह जाननी चाहिए तथा मोहनीयकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ ममतारूप परिणाम मूर्छा कहलाता है' मूर्छा और परिग्रह की व्याप्ति मूर्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य। सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥(112) परिग्रह का मूर्छा लक्षण करने से दोनों प्रकार-बहिरंग और अन्तरंग परिग्रह की व्याप्ति अच्छी तरह घट जाती है बाकी सब परिग्रहों से रहित भी निश्चय करके मूर्छावाला परिग्रह वाला है। 430 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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