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________________ चौथा भेद गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपयत्। सामान्येन त्रेधा ममिदमनृतं तुरीयं तु॥(95) और यह चौथा असत्य सामान्यरूप से गर्हित, पाप सहित और अप्रिय इस तरह तीन प्रकार का माना गया है। गर्हितकास्वरूप पैशून्यहासगर्भं कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च। अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम् ॥(96) - दुष्टता अथवा निन्दारूप हास्यवाला कठोर मिथ्या-श्रद्धानवाला और प्रलापरूप तथा और भी जो शास्त्रविरूद्ध वचन है वह सभी निन्द्यवचन कहा गया है। अवद्यसंयुक्त असत्य का स्वरूप छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि। तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधाद्या: प्रवर्तन्ते॥(97) जो छेदना, भेदना, मारण, शोषण, व्यापार या चोरी आदि के वचन हैं वे सब पाप युक्त वचन हैं क्योंकि यह प्राणी-हिंसा आदि पापरूप प्रवर्तन करते हैं। अप्रिय असत्य का स्वरूप अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥(98) जो वचन दूसरे जीवको अप्रीतिकारक भयकारक खेदकारक वैर शोक तथा कलहकारक हो और जो अन्य जो भी सन्तापकारक हो वह सर्व ही अप्रिय जानना चाहिये। असत्य वचन में हिंसाका सद्भाव सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत्। अनृतवचनेपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति॥(99) 424 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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