________________
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा भी गया है :
यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि। तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः॥(91)
जो कुछ प्रमाद कषाय के योग से यह स्व-परको हानिकारक अथवा अन्यथा रूप वचन कहने में आता है उसे निश्चय से असत्य जानना चाहिये उसके भेद चार हैं।
प्रथम भेद
स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्धयते वस्तु।
तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥(92) जिस वचन में अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से विद्यमान होने पर भी वस्तुका निषेध करने में आता है वह प्रथम असत्य है जैसे 'यहाँ देवदत्त नहीं
दूसरा भेद
असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः। उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः॥(93)
निश्चय से जिस वचन में उन परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अविद्यमान होने पर भी वस्तुका स्वरूप प्रगट करने में आवे वह दूसरा असत्य है। जैसे यहाँ घड़ा है।
तीसरा भेद ... वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन्। - अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरितियथाऽश्वः ॥(94)
और जिस वचन में अपने चतुष्टय से विद्यमान होने पर भी पदार्थ अन्य स्वरूप से कहने में आता है उसे यह तीसरा असत्य जानो। जैसे बैल को घोड़ा है ऐसा कहना।
423
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org