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________________ असत्य का लक्षण . असदभिधानमनृतम्। (14) Falsehood (is) to speak harmful-words (through प्रमत्त योग Pramallyo. ga, passional vibrations.) असत् बोलना अनृत है। इस सूत्र में 'सत्' का प्रतिषेधक ‘असत्' शब्द नहीं है अपितु 'सत्' शब्द प्रशंसावाची है, अत: 'न सत्-असत्' का अप्रशस्त अर्थ होता है, शून्य वा तुच्छाभाव नहीं। असत्-अप्रशस्त अर्थ का अभिधान-कथन, अप्रशस्त अर्थ को कहने वाला वचन असत् अभिधान है। 'ऋतं' शब्द सत्यार्थ में है। 'ऋतं' यह पद सत्यार्थ में जानना चाहिए अर्थात् ऋतं सत्य और अनृत-असत्य है। विद्यमान पदार्थों के अस्तित्व में कोई विध्न उत्पन्न न करने के कारण ‘सत्सु साधु सत्यम्' यह व्युत्पत्ति भी सत्य की हो सकती है (यानी समीचीन श्रेष्ठ पुरुषों में जो साधु वचन बोला जाता है, वह सत्य कहा जाता है। 'न ऋतं अनृतं' जो ऋत वचन नहीं है, वह अनृत वचन- असत्यवचन कहा जाता है। अत: मिथ्या शब्द से विद्यमान का लोप तथा अविद्यमान के उद्भावन करने वाले जो अभिधान (कथन) हैं वे ही अनृत (असत्य) होंगे। जैसे-आत्मा नामक पदार्थ नहीं है, परलोक नहीं है, श्यामतण्डुल बराबर आत्मा है, अंगूठे की पौर बराबर आत्मा है; आत्मा सर्वगत और निष्क्रिय है; इत्यादि वचन ही मिथ्या (विपरीत) होने से अनृत कहे जायेंगे, किन्तु जो विद्यमान (सत्) अर्थ को भी कहकर परप्राणी की पीड़ा करने वाले अप्रशस्त वचन हैं वे अनृत नहीं होंगे। क्योंकि मिथ्यानृत में मिथ्या का अर्थ विपरीत है और परप्राणी-पीड़ाकारी वचन विपरीत नहीं हैं। अतः परपीड़ाकारी अप्रशस्त वचन हैं, वे असत्य कोटि में नहीं आयेगे। 'असत्' कहने से जितने अप्रशस्त अर्थवाची वचन हैं, वे सभी अनृत (असत्य) कोटी में आ जायेंगे। इससे जो विपरीतार्थ वचन प्राणीपीड़ाकारी हैं वे सभी अनृत (असत्य) ही हैं; ऐसा जाना जाता है। 422 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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