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________________ संसार और शरीर के स्वभाव का विचार जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्। (12) For Hart Samvega, the apprehension of the miseries of the world and a pret Vairagya, non-attachment to sense pleasures (we should meditate upon) the nature of the world and of our physical body. संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाग और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए। अपने स्वरूप से होना (रहना) स्वभाव है। अर्थात् स्वकीय असाधारण धर्म में स्थिर होना स्वभाव कहा जाता है। जगत् और काय जगतकाय, जगत्काय का स्वभाव जगत्काय स्वभाव। विविध प्रकार की वेदना से अभिव्याप्य (आकारभूत) शरीर से भीरूता, संवेजन संवेग कहलता है। राग के कारणों का अभाव होने से, विषयों से विरक्त होना वैराग्य है। चारित्र मोह के उदय का अभाव होने पर वा होने वाले चारित्र मोह के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से शब्दादि पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना विराग है, ऐसा जाना चाहिये। विराग का भाव या कर्म वैराग्य कहलाता है। संवेग और वैराग्य, संवेगवैराग्य। संवेग और वैराग्य के लिये जगत् और काय के स्वभाव का विचार करना चाहिये। तद्यथा-जगत्स्वभाव, आदिमान और अनादिमान् परिणाम वाले द्रव्यों का समुदाय ही संसार है, जो तालवृक्ष के आकार वाला है, अनादिनिधन है। इस संसार में ये जीवात्माएँ देव, नारकी, मानव और तिर्यञ्च स्वरूप चारों गतियों में अनेक प्रकार के दु:खों को भोग-भोग कर परिभ्रमण कर रही है। इसमें कोई भी वस्तु नियत वा स्थिर नहीं है। जीवन जल बुदबुद के समान चपल है, भोग-सम्पदा विद्युत और मेघ के समान क्षणभंगुर है, इस प्रकार जगत् के स्वभाव का विचार करना चाहिये। शरीर अनित्य है, दुःख का हेतु है, निस्सार है और अशुचि है इत्यादि भावना शरीर का विचार है। इस प्रकार शरीर और संसार की भावना भाने वाले के संवेग उत्पन्न होता है। इस तरह आरम्भ-परिग्रह में दोष दृष्टिगोचर होने से आरम्भ एवं परिग्रह 418 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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