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से विरति होना धर्म है और धर्म से धर्म में, धार्मिकों में, धर्मश्रवण में और धार्मिक - दर्शन में बहुमान होता है (आदरभाव होता है), उनके प्रति मानसिक आह्लाद होता है । उत्तरोत्तर गुणों में की प्रतिपत्ति ( प्राप्ति) में श्रद्धा और वैराग्य होता है। यही संसार - शरीर भोगोपभोग वस्तु से निर्बेद होता है तथा भावना भाने वाला मानव अच्छी तरह से व्रतों का पालन करता है।
हिंसा पाप का लक्षण
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा । ( 13 )
By (प्रमत्तयोग) Passional vibrations, ( प्राणव्यपरोपणं) the hurting of the vitalities, (is) (हिंसा) injury.
प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है।
अनवगृहीत प्रचार विशेष को प्रमत्त कहते हैं । इन्द्रियों के प्रचार विशेष का निश्चय न करके जो प्रवृत्ति होती है वा बिना विचारे जो प्रवृत्ति होती है, वह प्रमत्त है। जैसे सुरा (मदिरा) पीने वाला मदोन्मत्त होकर कार्य अकार्य, वाच्य, अवाच्यसे अनभिज्ञ रहता है, कार्य-अकार्य, वाच्य अवाच्य को नहीं जानता है उसी प्रकार प्रमत्त वाला जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और जीवाश्रयस्थान को नहीं जानने वाला अविद्वान् (मूर्ख प्राणी) कषाय के उदय से आविष्ट होकर हिंसा के कारणों में व्यापार करता है, उनमें स्थित रहता है परन्तु सामान्यतया अहिंसा में प्रयत्नशील नहीं होता है। अतः मदोन्मत्त के समान होने से प्रमत्त कहलाता है। (इसमें 'मदोन्मत्त इव' अर्थ गर्भित ) है ।
अथवा पन्द्रह प्रमाद से परिणत होने से भी प्रमत्त कहलाता है। चार विकथा, चार, कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादों से जो परिणत ( युक्त) होता है वह प्रमत्त कहलाता हैं ।
काय वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं । प्रमत्त प्रमाद परिणत व्यक्ति के योग को प्रमत्त योग कहते है । 'प्रमत्तयोगात्' यह हेतु अर्थ में पंचमी है अतः प्रमत्तयोग के कारण प्राणों का व्याघात करना हिंसा है, इसमें प्रमत्तयोग कारण है (भाव हिंसा है) और प्राण का व्याघात कार्य ( द्रव्य हिंसा) है।
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