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(5) सत्त्व :- अनादि कर्मबन्धन के वश से जो दु:खी होते हैं, वे सत्त्व हैं। अनादिकालीन अष्टविधकर्मबन्धसन्तान से तीव्र दुःख की कारणभूत चारों गतियों में जो दुःख उठाते हैं, वे सत्त्व कहलाते हैं ।
( 6 ) गुणाधिक : - सम्यग्ज्ञानादि गुणों से प्रकृष्ट को गुणाधिक कहते हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि गुण हैं, वे गुण जिनके अधिक हैं, वे गुणाधिक कहलाते हैं।
(7) क्लिश्यमान :- असाता वेदनीय कर्म के उदय से सन्तप्त क्लिश्यमान हैं । असातावेदनीय कर्म के उदय से जो शारीरिक और मानसिक दुःखों (आधि-व्याधि ) से सन्तप्त हैं, वे क्लिश्यमान हैं।
( 8 ) अविनेय :- तत्त्वार्थोपदेश के श्रवण- ग्रहण के द्वारा असम्पादित गुण वाला अविनेय है । न विनेय अविनेय है। अर्थात् विपरीत वृत्ति वाले अविनेय
हैं।
( 9 ) विनेय :- तत्त्वार्थ का उपदेश श्रवण करने और उसे ग्रहण करने के जो पात्र होते हैं, उन्हें विनेय कहते हैं ।
इन सत्वादि में मैत्री आदि भावना यथाक्रम भानी चाहिये। जैसे- 'मैं सब जीवों के प्रति क्षमा भाव रखता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों से प्रीति है, किसी के साथ वैर भाव नहीं है।' इत्यादि प्रकार से जीवों
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प्रति मैत्री भावना भानी चाहिये। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रादि गुणाधिकों के प्रति वन्दना, स्तुति, वैयावृत्तिकरणादि के द्वारा प्रमोद भावना भानी चाहिये। मोहाभिभूत, कुमति, कुश्रुत और विभङ्गावधिज्ञान से युक्त विषयतृष्णा रूपी अग्नि के द्वारा दनमान मानस वाले, हिताहित से विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दुःखों से पीड़ित दीन, अनाथ, कृपण, बालवृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवों में करुणा भाव रूपी भावना भानी चाहिये । ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित महामोहाभिभूत, विपरीत दृष्टि और विरुद्ध वृत्ति प्राणियों में माध्यस्थ्य भावना रखनी चाहिये। ऐसा समझ लेना चाहिए कि ऐसे जीवों में वक्ता के हितोपदेश की सफलता नहीं हो सकती । इस प्रकार भावना भाने वालों के अहिंसादि व्रत परिपूर्ण होते हैं ।
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