________________
पापों का त्याग अभिसन्धि है। यह ऐसा ही करना है, अन्य प्रकार से निवृत्ति है;' ऐसे नियम को अभिसन्धि कहते हैं। अभिसन्धिकृत (बुद्धिपूर्वक किया हुआ) नियम सर्वत्र व्रत कहलाता है। अर्थात् शुभ कार्यों में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति ही व्रत है। व्रत में किसी अन्य कार्य से निवृत्ति ही मुख्य होती
__हिंसादि पाँच पापों के त्याग से केवल शुभाम्रव नहीं होता है परन्तु
अशुभ आस्रव का निरोध (संवर) भी होता है। पाँच पापों के त्याग से केवल परलोक ही नहीं सुधरता है परन्तु इहलोक अर्थात् वर्तमान जीवन भी आदर्श एवं सुखमय बनता है। जैन धर्म में तो हिंसादि पाँचों पापों तथा अहिंसादि पाँचों व्रतों का वर्णन अत्यन्त विस्तार से विभिन्न दृष्टिकोणों से सटीक किया गया है। अन्य धर्म में भी इसका वर्णन यत्र-तत्र पाया जाता है। हिन्दु धर्म के महान् ऋषि याज्ञवल्क्य ने भी अहिंसादि को धर्म कहा है। यथा
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
दानं दया दमः शान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम्॥ (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (अचौर्य) (4) शौच (शुद्धता, निर्लोभता, पवित्रता) (5) इन्द्रिय निग्रह (संयम) (6) दान (7) दया (8) दम (दुष्प्रवृत्तियों को रोकना) क्षान्ति (क्षमा धारण करना) ये सब धर्म के लिए साधन स्वरूप हैं। ___पातञ्जल योगदर्शन में महर्षि पातञ्जलि ने भी अष्टांग योग का वर्णन करते हुए यम को प्रथम स्थान दिया है। बिना यम आगे के सात अंगो से भी योग (ध्यान) की सिद्धि नहीं हो सकती है। जैनधर्म में जिसको पंचव्रत कहा है उसको पातञ्जलि ने यम कहा है। पाँच यम यथा. "अहिंसा सत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥(30)
(पृ.242) . अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम कहे जाते हैं।
401
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org