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________________ हिंसादि पाँचों पापों के त्याग से एवं अहिंसा आदि पांच व्रतों के सेवन से जो लाभ होता है उसका वर्णन स्वयं पातञ्जलि ने निम्न प्रकार किया है __ अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।(35 पृ.258) अहिंसाविषयक पूर्ण स्थिरता हो जाने पर अहिंसा प्रतिष्ठ योगी की सन्निधि में आने पर प्राणियों का स्वाभाविक वैर भी निवृत्त हो जाता है (उस समय साँप-चूहा, शेर-बकरी भी अपना वैर भुला देते हैं)। सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्॥(36) सत्य विषयक प्रतिष्ठा की प्राप्ति होने पर शुभाशुभ क्रिया से होने वाले धर्माधर्म एवं इस धर्माधर्म का फल स्वर्ग-नरकादि का आश्रय योगी बन जाता अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपरस्थानम् ॥(37) अस्तेय विषयक प्रतिष्ठा की प्राप्ति होने पर सभी प्रकार के रत्नों की उपस्थिति होती है ; कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तेय प्रतिष्ठ योगी की इच्छा होने पर देश-देशान्तरों के सब प्रकार के हीरे मोती आदि रत्न उपस्थित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥(38) ब्रह्मचर्य विषयक प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर वीर्य (सब प्रकार की विशिष्ट शक्ति) का लाभ होता है। अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ।।(39) ___ अपरिग्रह विषयक स्थिरता प्राप्त होने पर भूत, भावी तथा वर्तमान जन्म तथा उन जन्मों की विशिष्टता का साक्षात्कार (इस योगी को होता है)! शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा-परैरसंसर्गः ॥(40) शौच के पूर्णत: अनुष्ठान से अर्थात् शौच की स्थिरता से योगी मन में अपने अंगों के प्रति ग्लानि अथवा घृणा उत्पन्न होती है और दूसरों को स्पर्श करने का अभाव हो जाता है अर्थात् चाहे व्यक्ति कितना ही पवित्र क्यों न 402 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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