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सिद्धाणंतिमभागं अभव्वसिद्धादणंतगुणमेव।। .समयपबद्धं बंधदि जोगवसाद दु विसरित्थं ॥(4) यह आत्मा, सिद्ध जीवराशि के जो कि अनन्तानन्त प्रमाण कही है उसके अनंत वें भाग और अभव्यजीवराशि जो जघन्ययुक्तानंत प्रमाण है उससे अनंतगुणे समयप्रबद्ध को अर्थात् एक समय में बंधने वाले परमाणु समूह को बांधता है;- अपने साथ संबद्ध करता है। परन्तु मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप योगों की विशेषता से (कमती बढ़ती होने से) कभी थोड़े और कभी बहुत परमाणुओं का भी बंध करता है। अर्थात् परिणामों में कषाय की अधिकता तथा मन्दता होने पर आत्मा के प्रदेश जब अधिक वा कम सकंप (चलायमान) होते हैं तब कर्म परमाणु भी ज्यादा अथवा कम बंधते हैं। जैसे अधिक चिकनी दीवाल पर धूलि अधिक लगती है और कम चिकनी पर कम।
आस्रव का स्वरूप
स: आस्रवः। (2) This yoga is the channel of Asrava or intlow of karmic matter in to the soul. ..
वही आस्रव है। काययोग, वचनयोग एवं मनोयोग से आस्रव होने के कारण इन योगों को ही आस्रव कहा है। कर्म परमाणु का योग के द्वारा आकर्षित होकर आने को आस्रव कहते हैं। योग आस्रव होने में कारण है तथापि सूत्र में कारण में कार्य का उपचार कर योग को ही आस्रव कहा है। जैसे अन्न प्राण नहीं है तो भी प्राण की स्थिति में अन्न कारण होने से अन्न को ही प्राण कह • देते हैं। ' जैसे- नौका में छिद्र होने पर छिद्र से पानी नौका में प्रवेश कर लेता
है उसी प्रकार मन, वचन, काय के परिस्पन्दन रूपी छिद्र से कर्म का आगमन
होता है, उसे आस्रव कहते हैं। आस्रव के दो भेद हैं। (1) द्रव्य आस्रव (2) .. भाव आम्रव।
द्रव्य संग्रह में द्रव्य आस्रव एवं भाव आस्रव का वर्णन निम्न प्रकार
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