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(3) मनोयोग:- वीर्यान्तराय और नो इन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनोलब्धि के होने पर तथा बाहरी निमित्त भूत मनो वर्गणाओं का आवलम्बन मिलने पर मनरूप पर्याय के सन्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश परिस्पन्द मनोयोग कहलाता है।
वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोग केवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्म-प्रदेश परिस्पन्द होता है वह भी योग है ऐसा जानना चाहिये। गोम्मटसार में कहा भी है
पुग्गलविवाइदेहोदयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा ह सत्ती, कम्मागमकारणं जोगो॥(216)
गो.जी. पुद्गल विपाकी शरीर नाम कर्म के उदय से मन, वचन, काय से युक्त जीव की जो कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको योग कहते
देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्म णोकम्म। पडिसमयं सव्वंगं तत्तायसपिंडओव्वं जलं॥(3)
गो.क.पृ. (2) यह जीव औदारिक आदि शरीरनाम कर्म के उदय से योग सहित होकर ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप होने वाली कर्मवर्गणाओं को, तथा औदारिक आदि चार शरीर (1) औदारिक (2) वैक्रियिक (3) आहारक (4) तैजस रूप होने वाली नोकर्मवर्गणाओं को हर समय चारों तरफ से ग्रहण (अपने साथ सम्बद्ध) करता है। जैसे कि आग से तपा हुआ लोहे का गोला पानी को सब और से अपनी तरफ खींचता है।
यह जीव कर्म तथा नोकर्मरूप होने वाले कितने पुद्गलपरमाणुओं को प्रतिसमय ग्रहण करता है, सो बताते हैं,
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