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जो प्रसन्नता होती है, उसे सुख कहते है। जब आत्मा से बद्ध साता वेदनीय कर्मद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादि बाह्य कारणों से परिपाक को प्राप्त होता हैं।
(i) दुःख:- असाता वेदनीय कर्म के उदय से आत्म परिणामों में संक्लेश होता है वह दुःख है। जब आत्मा से बद्ध असाता वेदनीय कर्म द्रव्य, क्षेत्रादि बाह्य कारणों से परिपाक को प्राप्त होते हैं, तब आत्मा के जो संक्लेश परिणाम होते हैं, उसे दुःख कहा जाता है अर्थात् सातावेदनीय के उदय में सुख और असाता वेदनीय के उदय को दुःख कहते हैं।
(3) जीवित :- भवस्थिति में कारणभूत आयुकर्म द्रव्य से सम्बन्धित जीव के प्राणापान लक्षण क्रिया का उपरम नहीं होना ही जीवित है। भवधारण में कारण आयु नाम का कर्म है। उस आयु कर्म के उदय से प्राप्त भवस्थिति को धारण करने वाले जीव के पूर्वोक्त प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) क्रिया का चालू रहना उसका उच्छेद नहीं होना ही जीवित है।
(4) मरण :- उस श्वासोच्छ्वास का उच्छेद ही मरण है। जीव के जीवित में कारण भूत श्वासोच्छ्वास का उच्छेद ही जीव का मरण है।
.. जीवों का उपकार
परस्परोपग्रहो जीवानाम्। (21) परस्परोपग्रहो जीवानां उपकारः भवति। The mundane souls help the support each other. परस्पर सहायता में निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।
स्वामिसेवक आदि कर्म से वृत्ति (व्यापार) को परस्परोपग्रह कहते हैं। स्वामी, नौकर, आचार्य (गुरु) शिष्य आदि भाव से जो वृत्ति होती है, उसको परस्पर उपग्रह कहते हैं, जैसे-स्वामी अपने धन का त्याग करके (रूपयादि प्रदान करके) सेवक का उपकार करते हैं और सेवक स्वामी के हितप्रतिपादन
और अहित के प्रतिषेध द्वारा उसका उपकार करता है। आचार्य (गुरु) उभय लोक का हितकारी मार्ग दिखाकर तथा हितकारी क्रिया का अनुष्ठान कराकर शिष्यों का उपकार करते हैं और शिष्य गुरु के अनुकुल वृत्ति से उपकार करते
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