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न हों, तो जीव पुद्गल के निरतंर गति परिणाम और स्थितिपरिणाम होने से अलोक में भी उनका (जीव-पुद्गल का) होना किससे निवारा जा सकता है ? (किसी से नहीं निवारा जा सकता) इसलिये लोक और अलोक का विभाग सिद्ध नहीं होगा किन्तु यदि जीव-पुद्गल की गति के और गतिपूर्वकस्थिति के बहिरंग हेतुओं के रूप में धर्म और अधर्म का सद्भाव स्वीकार किया जाये तो लोक और अलोक का विभाग (सिद्ध) होता है। (इसीलिये धर्म और अधर्म विद्यमान हैं) धर्म और अधर्म दोनों परस्पर पृथग्भूत अस्तित्व से निष्पन्न होने से विभक्त (भिन्न) हैं, एक क्षेत्रावगाही होने से अविभक्त (अभिन्न) हैं, समस्त लोक में प्रवर्त्तमान जीव-पुद्गलों को गति-स्थिति में निष्क्रिय रूप से अनुग्रह करते हैं इसलिये लोकप्रमाण हैं।
ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदि गदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च॥(88)
जैसे घोड़ा स्वयं चलता हुआ अपने ऊपर चढ़े हुए सवार के गमन का कारण होता है ऐसा धर्मास्तिकाय नहीं है, क्योंकि वह क्रियारहित है, किन्तु जैसे जल स्वयं ठहरा हुआ है तो भी स्वयं अपनी इच्छा से चलती हुई मछलियों के गमन में उदासीनपने से निमित्त हो जाता है, वैसे धर्म द्रव्य भी स्वयं ठहरा हुआ अपने ही उपादान कारण से चलते हुए जीव. और पुद्गलों को बिना प्रेरणा किये हुए उनके गमन में बाहरी निमित्त हो जाता है। यद्यपि धर्मास्तिकाय उदासीन है तो भी जीव पुद्गलों की गति में हेतु होता है। जैसे-जल उदासीन है तो भी वह मछलियों के अपने ही उपादान बल से गमन में सहकारी होता है। जैसे स्वयं ठहरते हुए घोड़ों को पृथ्वी व पथिकों को छाया सहायक है वैसे ही अधर्मास्तिकाय स्वयं ठहरा हुआ है तो भी अपने उपादान कारण से ठहरे हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में बाहरी कारण होता है।
विज्जदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि।
ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति॥(89)
धर्मद्रव्य कभी अपने गमनहेतुपने को छोड़ता नहीं है तैसे ही अधर्म कभी स्थितिहेतुपने को छोड़ता नहीं है। यदि ये ही गमन और स्थिति कराने में मुख्य
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