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कारणभूत है, अपने अस्तित्वमात्र से निष्पन्न होने के कारण स्वयं अकार्य है।
. उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हरदि लोए। ___ तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि॥(85)
जिस प्रकार पानी स्वयं गमन न करता हुआ और (पर को) गमन न कराता हुआ, स्वयमेव गमन करती हुई मछलियों को उदासीन अविनाभावी सहायरूप से कारणमात्ररूप से गमन में अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्म (धर्मास्तिकाय) भी स्वयं गमन न करता हुआ और (पर को) गमन न कराता हुआ, स्वयमेव गमन करते हुए जीव पुद्गलों को उदासीन अविनाभावी सहायरूप से कारणमात्ररूप से गमन में अनुग्रह करता है (सहायक होता है)।
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव॥(86)
जैसे पहले धर्म द्रव्य के सम्बन्ध में कहा था कि, वह रस आदि से रहित अमूर्तिक है, नित्य है, अकृत्रिम है, परिणमनशील है व लोकव्यापी है तैसे ही अधर्म द्रव्य को जानना चाहिये। विशेष यह है कि धर्मद्रव्य तो मछलियों के लिये जल की तरह जीव पुद्गलों के गमन में बाहरी सहकारी कारण है। यह अधर्म द्रव्य जैसे-पृथिवी स्वयं पहले से ठहरी हुई दूसरों को न ठहराती हुई घोड़े आदि के ठहरने में बाहरी सहकारी कारण है वैसे स्वयं पहले से ही ठहरा हुआ व जीव पुद्गलों को न ठहराता हुआ उनके स्वयं ठहरते हुए उनके ठहरने में सहकारी कारण है।
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदि।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य॥(87) . धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य विद्यमान हैं क्योंकि लोक और अलोक का विभाग अन्यथा नहीं बन सकता। जीवादि सर्व पदार्थों के एकत्र अस्तित्वरूप लोक है, शुद्ध एक आकाश से अस्तित्व रूप अलोक है। वहाँ जीव और पुद्गल स्वरस से ही (स्वभाव से ही) गतिपरिणाम को तथा गतिपूर्वक स्थितीपरिणाम को प्राप्त होते हैं। यदि गतिपरिणाम अथवा गतिपूर्वक स्थितिपरिणाम का स्वयं अनुभव (परिणमन) करने वाले उन जीव पुद्गल को बहिरंगहेतु धर्म और अधर्म
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