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कर अव्यवस्थित हो जायेगा और वर्तमान में जो विश्व की संगठन (संरचना) है, वह नहीं रह सकती है। शरीर का भी जो संगठन है, वह भी फैलकर के विस्फोट होकर यत्र-तत्र बिछुड़ जावेगा ।
धर्म द्रव्य के साथ वैज्ञानिक जगत् के ईथर कुछ हद तक समान मान सकते हैं परन्तु जैन धर्म में जो तथ्य पूर्ण वर्णन है वह वर्णन वैज्ञानिक जगत् के ईथर में नहीं पाया जाता है। ईथर का शोध अभी हुआ है किन्तु धर्म द्रव्य का वर्णन जैन धर्म में प्राचीन काल से है ।
आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा जो केन्द्राकर्षण शक्ति Gravitational Force उसके साथ अधर्म द्रव्य की कुछ सदृश्यता पायी जाती है । परन्तु अधर्मद्रव्य की जो सटीक वैज्ञानिक सूक्ष्म परिभाषा है, वह केन्द्राकर्षण शक्ति में नहीं है । पंचास्तिकाय में कुन्द - कुन्द देव ने धर्म तथा अधर्म का सविस्तार वर्णन निम्न प्रकार किया है
अवण्णगंधं
धम्मत्थिकायमरसं लोगागाढ़
पुट्ठ
स्पर्श, रस, गंध और वर्ण का अत्यन्त अभाव होने से धर्मास्तिकाय वास्तव में अमूर्त स्वभाव वाला है, और इसीलिये अशब्द है, समस्त लोकाकाश में व्याप्त होकर रहने से लोकव्यापक है, अयुतसिद्ध ( असंयोगी) प्रदेश वाला होने से अखण्ड है, स्वभाव से ही सर्वतः विस्तृत होने से विशाल है, निश्चयनय एक प्रदेशी (अखण्ड) होने पर भी व्यवहारनय से असंख्यात प्रदेशी है ।
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धर्म (धर्मास्तिकाय) अगुरुलघु गुणों रूप से अर्थात् अगुरूलघुत्व नाम का जो स्वरूपप्रतिष्ठत्व के कारणभूत स्वभाव उसके अविभाग प्रतिच्छेदों रूप
से जो किं प्रतिसमय होने वाली षट्स्थानपतित वृद्धिहानि वाले अनंत हैं उनके रूप से - सदैव परिणमित होने से उत्पाद व्यय वाला है, तथापि स्वरूप से च्युत नहीं होता इसीलिये नित्य है, गतिक्रियारूप से परिणमित होने में (जीव पुद्गलों को) उदासीन अविनाभावी सहायमात्र होने से गति क्रियापरिणाम को
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असद्दमप्फासं । पिहुलमसंखादियपदेसं ।। (83)
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अगुरुगलधुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं । गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ॥ (84)
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