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By the contraction and expansion of the pradesas, the soul although it has a countless number of paradesas, occupies space like the light from a lamp. It can occupy the smallest possible body, viz., that of a bacterium or the biggest body of a Mahamaccha, with a length of 1,000 yojanas. क्योंकि प्रदीप के समान जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता
लोकाकाश में जितने प्रदेश होते हैं उतने ही प्रदेश एक जीव द्रव्य में होते हैं। यहाँ प्रश्न होना स्वाभाविक है कि दोनों के प्रदेश समान हैं तो एक लोकाकाश में एक जीव रह सकता है, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात अनंत नहीं। इस प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है।
कार्माण शरीर के वश से ग्रहण किये गये सूक्ष्म एवं बादर शरीर के अनुसार अनुवर्तन होना संहार और विसर्प है। अमूर्त स्वभाव वाला भी आत्मा अनादि सम्बन्ध के प्रति एकत्व होने से कथञ्चित् मूर्तता को धारण किये हुये है और लोकाकाश के बराबर इसके प्रदेश हैं फिर भी जब यह कार्माण शरीर के कारण ग्रहण किये गये सूक्ष्म शरीर में रहता है तब इसके प्रदेशों का शुष्क चर्म के समान संकोचित होकर प्रदेशों का संहार हो जाता है। जब कार्माण शरीर के कारण बादर शरीर में रहता है तब जल में तेल के समान प्रदेशों का फैलाव होकर विसर्पण हो जाता है।
उस संकोच-विस्तार के कारण प्रदीप के समान लोक के असंख्येयादि भागों में जीव रहता है। जैसे-निरावरण आकाश प्रदेश में रखे हुए प्रदीप का आकाश बहुदेशव्यापी होने पर भी सिकोरा, मानिका और कमरे आदि आवरण के कारण सिकोरा आदि परिमाण वाला हो जाता है अर्थात् निरावरण आकाश प्रदेश में बहुत दूर तक व्याप्त होकर रहने वाला भी दीपक का प्रकाश सिकोरा
आदि आवरण में संकुचित होकर जहाँ रखा गया है, उसी प्रमाण हो जाता है अर्थात् उतने में ही सीमित हो जाता है, उसी प्रकार संहार और विसर्प स्वभाव होने के कारण दीपक के समान आत्मा के भी असंख्येय एक भागादि में परिछिन्न वृत्ति जाननी चाहिए।
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