________________
पञ्चास्तिकाय में कुन्द कुन्द देव ने भी कहा है
जह पउमरायरयणं खित्त खीरे भासयदि खीरं। — तह देही देहत्थो सहमित्तं पभासयदि॥(33)
पृ.123 जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूध में डाला जाने पर दूध को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार देही-देह में रहता हुआ स्वदेह प्रमाण प्रकाशित होता है।
जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूध में डाला जाने पर अपने से अभिन्न प्रभासमूह द्वारा उस दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादिकाल से कषाय द्वारा मलिनता के कारण प्राप्त शरीर में रहता हुआ स्वप्रदेशों द्वारा उस शरीर में व्याप्त होता है और जिस प्रकार अग्नि के संयोग से उस दूध में उफान आने पर उस पद्मरागरत्न के प्रभा समूह में उफान आता है। (अर्थात् वह विस्तार को प्राप्त होता है) और दूध बैठ जाने पर प्रभा समूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादि के वश उस शरीर में वृद्धि होने पर उस जीव के प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं। पुन: जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दसरे बड़े शरीर में स्थिति को प्राप्त होने पर स्वप्रदेशों के विस्तार द्वारा उस बड़े शरीर में व्याप्त होता है। और जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे कम दूध में डालने पर स्वप्रभासमूह के संकोच द्वारा उस थोडे दूध में व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीर में स्थिति को प्राप्त होने पर स्वप्रदेशों के संकोच द्वारा उस छोटे शरीर में व्याप्त होता है।
__यहाँ यह प्रश्न होता है कि, अमूर्त जीव का संकोच विस्तार कैसे संभव है? उसका समाधान किया जाता है
अमूर्त के संकोच-विस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। जीव के जो प्रदेश मोटे शरीर में फैले हुए थे, वे ही शरीर के पतले हो जाने पर सिकुड़ गये तथा बालक के शरीर में जो जीव के प्रदेश सिकुड़े हुये थे, वे ही कुमार अवस्था के शरीर में फैल जाते हैं। इस प्रकार से जीव के प्रदेशों का संकोच तथा
291
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org