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________________ लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं उसके असंख्यातवें भाग करने पर जो एक भाग प्राप्त होगा उसे अंसख्यातवां भाग कहते हैं। उस असंख्यातवें भाग में भी असंख्यात प्रदेश होते हैं क्योंकि असंख्यात को असंख्यात में भाग करने पर भागफल भी असंख्यात ही आता है; परन्तु भागफल भाज्य से छोटा होगा। ऐसे लोकाकाश में एक जीव रह सकता है। इसका स्पष्टीकरण इसी प्रकार है: एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है। इस प्रकार दो, तीन और चार आदि असंख्यातवें भागों को लेकर सब लोकपर्यन्त एक जीव का अवगाह जानना चाहिए। किन्तु नाना जीवों का अवगाह सब लोक में ही होता है। ___ यदि लोक के एक असंख्यातवें भाग में एक जीव रहता है तो संख्या की अपेक्षा अनन्तानन्त सशरीर जीवराशि लोकाकाश में कैसे रह सकती हैं? समाधान-जीव दो प्रकार के हैं सूक्ष्म और बादर, अत: उनका लोकाकाश में अवस्थान बन जाता है। जो बादर जीव है उनका शरीर तो प्रतिघात सहित होता है। किन्तु जो सूक्ष्म हैं वे यद्यपि सशरीर हैं तो भी सूक्ष्म होने के कारण एक निगोद जीव आकाश के जितने प्रदेशों को अवगाहन करता है उतने में साधारण शरीर वाले अनन्तानन्त जीव रह जाते हैं। वे परस्पर में और बादरों के साथ व्याघात को नही प्राप्त होते इसलिए लोकाकाश में अनन्तानन्त जीवों के अवगाह में कोई विरोध नहीं आता। लोगस्स असंखेज्जदिभागप्पहुदिं तु सव्वलोगो ति। अप्पपदेसविसप्पणसंहारे वावड़ो जीवो॥(584) एक जीव अपने प्रदेशों के संहार विसर्प की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में व्याप्त होकर रहता है। (गोम्मट्टसार जीवकाण्ड पृ. 264) जीव प्रदेशों का संकोच विस्तार स्वभाव प्रदेशसंहारविसर्पाभ्याम् प्रदीपवत्। (16) प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् लोकाकाशे अंसख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति। 289 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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