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देखा जाता है। जैसे एक कमरे में बहुत से दीपकों का प्रकाश रह जाता है, न तो उससे क्षेत्र विभाग (भिन्न-भिन्न क्षेत्र) होता है और न एक प्रदेश में रहने से उन सब प्रकाशों का एकत्व होता है अर्थात् उनकी पृथक् सत्ता नष्ट नहीं होती है ; उसी प्रकार एक प्रदेश में अनन्त स्कन्ध अतिसूक्ष्म परिणमन के कारण स्वभाव में सार्य हुए बिना ही रह सकते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है।
अथवा, द्रव्य का स्वभाव तर्कणा के योग्य नहीं है क्योंकि द्रव्यों के स्वभाव प्रतिनियम होते हैं। उनके स्वभाव में ऐसा हो, ऐसा न हो; ऐसा तर्क नहीं चलता। जैसे अग्नि का स्वभाव जलाने पकाने आदि का है और तृण आदि का स्वभाव जलने पकने आदि का है। इनके स्वभाव में कोई तर्क नहीं चलता, उसी प्रकार पुद्गलादि के मूर्तिमान द्रव्य होने पर भी अनेक स्कन्धों का एक आकाश प्रदेश में अवगाहन स्वभाव के कारण अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है अर्थात् एक प्रदेश में अनेक स्कन्ध रह सकते हैं।
__ अथवा आर्षप्रणीत आगम होने से सूक्ष्म निगोदिया जीवों के अवस्थान के समान एक प्रदेश में अनेक स्कन्ध रह जाते हैं। सर्वज्ञ ज्ञान के द्वारा जिसके अर्थ का सार प्रकट किया गया है, गणधरों ने जिसके वचनों का अनुसरण करके जिसकी रचना की है अर्थात् अङ्गों में विभक्त किया है तथा आरातीय (प्राचीन) आचार्यों के शिष्यों-प्रतिशिष्यों के प्रबन्ध से विच्छेद के बिना अविच्छिन्न रूप से जिसकी सन्तान-परम्परा चली आ रही है, उन निर्दोष ग्रन्थों को आर्ष कहते हैं। उन आर्ष (ऋषिप्रणीत) ग्रन्थों में लिखा है कि सारा लोक-अनन्तानन्त विविध प्रकार के बादर एवं सूक्ष्म पुद्गलकाय के द्वारा ठसा-ठस भरा हुआ है; आदि। अत: आर्ष वाक्यों की प्रमाणता से भी उक्त स्कन्धों का एकादि प्रदेशों में अवगाह जानना चाहिये। जैसे सर्वज्ञप्रणीत आगम के अनुसार एक निगोद शरीर में साधारण आहार, जीवन-मरण और श्वासोच्छवास होने से साधारण संज्ञा वाले अनन्त निगोदियों का अवस्थान बताया है, इसलिये साधारण यह अन्वर्थ संज्ञा आगम प्रमाण से जानी जाती है, उसी प्रकार आगम में यह भी बताया है कि 'यह सारा लोकाकाश सर्वत: अनन्तानन्त विविध सूक्ष्म और बादर पुद्गलकायों से ठसाठस भरा हुआ है।' अतः आगम प्रमाण से इनका
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