SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्माधर्मयो: कृत्स्ने। (13) धर्माधर्मयो: कृत्स्ने लोकाकाशे अवगाहो भवति। The whole Universe or Loka is the place of Dharma and Adharma Dravyas. धर्म और अधर्म द्रव्य का अवगाह समग्र लोकाकाश में है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं। उस सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रदेश में धर्म तथा अधर्म द्रव्य के प्रदेश व्याप्त होकर रहते हैं अर्थात् लोकाकाश के एक प्रदेश में धर्म द्रव्य के एक प्रदेश तथा अधर्म द्रव्य के एक प्रदेश रहते हैं। लोकाकाश में धर्म द्रव्य तथा अधर्म द्रव्य का अवस्थान जैसे चौकी के ऊपर पुस्तक है उस प्रकार नहीं है। परन्तु जैसे दूध में घी, तिल में तेल ; ईंधन में अग्नि रहती है उसी प्रकार धर्म एवं अधर्म द्रव्य के प्रदेश लोकाकाश के सम्पूर्ण प्रदेश में व्याप्त रहते हैं। आधुनिक विज्ञान में भी माना गया है कि 'ईथर' तथा गुरूत्वाकर्षण शक्ति आकाश में व्याप्त होकर रहती है। इसलिये निरवशेष व्याप्ति का प्रदर्शन कराने के लिये सूत्र में 'कृत्स्न' वचन का प्रयोग किया है क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य निरन्तर सारे लोकाकाश में व्याप्त होकर रहते हैं। प्रश्न- धर्म, अधर्म आदि के प्रदेश परस्पर अविरोध रूप से एक स्थान में कैसे रहते हैं? उत्तर- अमूर्त्तिक होने से धर्म, अधर्म और आकाश के प्रदेशों में परस्पर विरोध नहीं है। जब मूर्त्तिमान् जल, भस्म, रेत आदि पदार्थ बिना विरोध के एक स्थान में रह सकते हैं तब इन अमूर्तिक द्रव्यों की एकत्र स्थिति में तो कहना ही क्या? अर्थात्- जैसे पानी से भरे हुए घट में चीनी-रेत-भस्म, लोहे के काँटे आदि प्रवेश कर जाते हैं वैसे ही परस्पर विरोधरहित जीवादि अनन्त पदार्थ लोकाकाश में रह जाते हैं। इसलिये अमूर्तिक होने से इन धर्मादि के प्रदेशों का परस्पर एक स्थान में रहने में कोई विरोध नहीं है; ऐसा जानना चाहिए। . इनका अनादि सम्बन्ध पारिणामिक स्वरूप होने से भी कोई विरोध नहीं . है। भेद, संघात, गति, परिणाम पूर्वक आदिमान् सम्बन्ध वाले किसी स्थूल 285 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy