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________________ जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। तह्या गमणट्ठाणं आयासे जाण णस्थित्ति ॥(93) क्योंकि श्री जिनेन्द्रों ने सिद्धों का लोक के अग्रभाग में तिष्ठना कहा .. है इसलिये आकाश में गमन और स्थिति में सहकारीपना नहीं है ऐसा जानो। इसी से ही जाना जाता है कि, आकाश में गति और स्थिति का कारण पता नहीं है, किन्तु धर्म और अधर्म ही गति और स्थिति का कारण है, यह अभिप्राय है। जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। . ... पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्ढी॥(94) यदि आकाश गति व स्थिति में कारण हो तो लोकाकाश के बाहर भी आकाश की सत्ता है तब जीव और पुद्गलों का गमन अनंत आकाश में भी हो जावे इससे अलोकाकाश न रहे और लोक की सीमा बढ़ जावे लेकिन ऐसा नहीं है। इसी कारण से यह सिद्ध है कि आकाश गति और स्थिति के लिए कारण नहीं है। धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिमाणा। पुधगुवलद्धविसेसा करिति एगत्तमण्णत्तं ॥(96) व्यवहार से धर्म, अधर्म व लोकाकाश एक समान असंख्यात प्रदेश को रखने वाले हैं इसलिये इनमें एकता है परन्तु निश्चय से ये तीनों अपने-अपने स्वभाव में है, इससे अनेकता या भिन्नता है। जैसे- यह जीव पुद्गल आदि पांच द्रव्यों के साथ व अन्य जीवों के साथ एक क्षेत्र में अवगाहरूप रहने से व्यवहार से एकपने को बताता है, परन्तु निश्चयनय से भिन्नपने को प्रगट करता है, क्योंकि यह जीव एक समय में सर्व पदार्थों में प्राप्त अनन्त स्वभावों को प्रकाश करने वाले परम चैतन्य के विलास रूप अपने ज्ञान गुण से शोभायमान है। वैसे ही धर्म, अधर्म और लोकाकाश द्रव्य एक क्षेत्र में अवगाहरूप होने से अभिन्न है तथा समान प्रदेशों का परिमाण रखते हैं। इसलिये उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से परस्पर एकता करते हैं, परन्तु निश्चय नय से अपने-अपने गति स्थिति व अवगाह लक्षण को रखने से नानापना या भिन्नपना करते हैं। 284 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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