SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाते हैं। इसलिए एक आकाश प्रदेश में एक से लेकर तीन व संख्यात, असंख्यात अनंत परमाणु समाहित हो सकते हैं। जब एक ही आकाश प्रदेश में अनंत परमाणु भी रह सकते हैं तो असंख्यात प्रदेश वाले लोकाकाश में अनंतानंत परमाणु क्यों नहीं रह सकते ? अर्थात् रह सकते हैं। जीवापुग्गलकाया धम्मा धम्मा य लोगदोणण्णा। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥(91) (पंचास्तिकाय पृ.246) अनंत जीव, अनंत पुद्गल स्कंध, अणु, धर्म, अधर्मद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य इस लोक से बाहर नहीं हैं। इस लोकाकाश से जुदा नहीं हैं। लोकाकाश से बाहर शेष आकाश अंतरहित-अनंत है। आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहिं देदि जदि। उटुंगदिप्पधाणा सिद्धा चिटुंति किध तत्थ॥(92) जो मात्र अवकाश का ही हेतु है ऐसा जो आकाश उसमें गति स्थिति हेतुत्व (भी) होने की शंका की जाये तो दोष आता है उसका यह कथन यदि आकाश जिस प्रकार वह अवगाहना वालों को अवगाह हेतु है उसी प्रकार, गति स्थिति वालों को गति, स्थिति हेतु भी हो, तो सर्वोत्कृष्ट स्वाभाविक उर्ध्वगति से परिणत सिद्ध भगवन्त, बहिरंग-अंतरंग साधन रूप सामग्री होने पर भी क्यों (किस कारण) उसमें आकाश में स्थिर हों। सिद्ध भगवान् स्वभाव से ऊपर को गमन करते हैं। वे यदि आकाश के ही निमित्त-कारण से जावें तो वे अनंत आकाश में जा सकते हैं, क्योंकि आकाश लोक से बाहर भी है। परन्तु वे बाहर नहीं जाते हैं कारण यही है कि वहाँ धर्म द्रव्य नहीं हैं। जहाँ तक धर्म द्रव्य है वहीं तक गमन में सहकारीपना 283 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy