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________________ जाता है वह व्यवहार काल यहाँ की अपेक्षा से है। गोम्मटसार में कहा भी ववहारो पुण कालो, माणुसखेत्तम्हि जाणीदव्वो दु। जोइसियाणं चारे, ववहारो खलु समाणो ति॥ (577) (गो:सा. जीवकाण्ड) परन्तु यह व्यवहार काल मनुष्यक्षेत्र में ही समझना चाहिये, क्योंकि मनुष्य क्षेत्र के ही ज्योतिषी देवों के विमान गमन करते हैं और इनके गमन का काल तथा व्यवहार काल दोनों के समान हैं। ज्योतिर्गतिपतिच्छिन्नो मनुष्यक्षेत्रवर्त्यसौ। . यतो न ही बहिस्तस्माज्ज्योतिषां गतिरिष्यते ॥(49) (त.सा;) ज्योतिष्क देवोंकी गति से विभक्त होनेवाला यह व्यवहार काल मनुष्यक्षेत्र में ही होता है क्योंकि उससे बाहर ज्योतिष्क देवों में गति नहीं मानी जाती है। मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिषीदेवों की स्थिति बहिरवस्थिताः। (15) (The stellars) outside the 2.5 dvipasi.e. beyond Manusottara mountain in the middle of Puskaravara dvipa are) fixed . (The never move .) मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिषी देव स्थिर रहते हैं। मनुष्य लोक संबन्धी ढाईद्वीप के ज्योतिष्क देव परिभ्रमण करते हैं। मानुषोत्तर पर्वत से 50 हजार योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क वलय के रूप में स्थित हैं अर्थात् मानुषोत्तर से 50 हजार योजन चलकर ज्योतिष्कों का पहला वलय है। इस वलय में 144 चन्द्र एवं 144 सूर्य हैं। इस वलय के बाद एक-एक लाख योजन जाकर द्वितियादि वलय हैं। द्वितियादि वलय में प्रथमादि वलय से 4-4 चन्द्र, सूर्य की संख्या ज्यादा है। पूर्व द्वीप समुद्र के आदि में चन्द्र, सूर्य की संख्या दूनी है। इसी प्रकार सूर्य-चन्द्र का अवस्थान अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र तक है। एक दूसरे की किरणें निरन्तर परस्पर मिली हुई है। इसी प्रकार मानुषोत्तर पर्वत से लेकर स्वयंभूरमणपर्यन्त असंख्यात ज्योतिषी 248 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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