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बहना चाहिये । पृथ्वी के भ्रमण एवं परिभ्रमण से जो परिस्पन्दन होता है, उससे बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं को खण्ड-खण्ड होकर गिर जाना चाहिये । यदि पृथ्वी गोलाकृति परिभ्रमणशील है तब पृथ्वी के नीचे भाग में स्थित समुद्र का पानी उछलकर नीचे गिरना चाहिये, किन्तु उपरोक्त घटनाएँ नहीं होती हैं। इसका कारण वैज्ञानिक, पृथ्वी का विशाल कायत्व एवं केन्द्राकर्षण शक्ति के कारण से नहीं होता है, ऐसा मानते हैं। इसी प्रकार विज्ञान जो मानता है उसको बिना परीक्षा से सब कोई मान लेते हैं, किन्तु जो प्रत्यक्ष, सिद्ध एवं अविरोध सिद्धान्त है उसकी अवहेलना करते हैं। यहाँ एक प्रश्न है कि यदि पृथ्वी गोलाकृति नहीं है एवं परिभ्रमण नहीं करती है तब प्रकृति में जो परिवर्तन होते हैं उनमें क्या किसी भी प्रकार की त्रुटि होती है ? क्या इसमें कोई बाधक कारण है ? विज्ञान के सिद्धान्त में तो अनेक बाधक कारण होने पर भी उसका अन्धानुकरण करते हैं किन्तु वास्तविक सिद्धान्त को परम्परागत अन्धानुकरण मानकर छोड हैं। भू-भ्रमण के कारण अन्य नक्षत्रादि भ्रमणशील भ्रम से मालूम पडता है, ऐसा जो विज्ञान मानता है, वह जगत् माया स्वरूप है, इस सिद्धान्त के समान है । किन्तु सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिष्क विमान गमन करते हैं क्योंकि उनकी एक स्थान से दूसरे स्थान में उपलब्धि होती हैं।
( विश्व विज्ञान रहस्य ) (पृ.सं. 166 )
काल का व्यवहार होने का कारण
तत्कृत: कालविभागः । ( 14 )
Divisians of time (are) caused by these ( movements of the stellars.) उन गमन करने वाले ज्योतिषियों के द्वारा किया हुआ कालविभाग है ।
काल दो प्रकार का है ( 1 ) मुख्य काल ( द्रव्य काल) (2) व्यवहार काल । काल द्रव्य को मुख्य काल कहते हैं । समय, सैकण्ड, घड़ी, घण्टा, दिन, रात, वर्ष, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि को व्यवहार काल कहते हैं । यह व्यवहार काल सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषविमान की गति से तथा पुद्गल परिणमन से जाना जाता है। सूर्य, चन्द्र आदि की गति मनुष्य लोक में अर्थात् अढाई द्वीप में होती है अर्थात् व्यवहार काल व्यक्त रूप एवं स्थूल रूप से यहाँ ही पाया जाता है। अन्य क्षेत्र में जो व्यवहार काल का प्रयोग किया
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