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अनेक शताब्दी पहले किया है
मेरू प्रदक्षिणा नित्यगतयः स्विति निवेदनात्। नैव प्रदक्षिणा तेषां कदाचित्कीष्यते न च॥ गत्यभावोति चानिष्टं यथा भूभ्र वादिनः।
भुवोभ्रमण निर्णीति विरहस्योपपत्तितः॥
सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों का गमन कभी-कभी होता है, ऐसा नहीं है अर्थात् सदैव होता रहता है। पृथ्वी को घूमती हुई और ज्योतिष्क देवों के भ्रमण को नहीं मानने वाले मतान्तरों का कहना अनिष्ट है । वह सिद्ध नहीं होता है।
नहि प्रत्यक्षतो भूमे भ्रमणनिर्णीतरस्ति स्थिरतयै वानुभवनात्। न चायं भ्रान्त : सकलदेशकाल पूरूषाणां तभ्रमणाप्रतीते॥
(श्लोकवार्तिक) पृथ्वी घूमती है, ऐसा निर्णय प्रत्यक्ष से होता नहीं है, किन्तु पृथ्वी स्थिर है, ऐसी ही प्रतीति सभी लोगों को होती है। कोई ऐसा हेतु भी नहीं है, जिससे पृथ्वी का घूमना सिद्ध हो सके। उक्त जैनाचार्य ने यह भी स्पष्ट किया है कि यदि पृथ्वी को गोल मानेंगे तो पूर्वापर (पूर्व-पश्चिम) समुद्र में जाने वाली नदियों की क्या दशा होगी। वे नदियाँ किस दिशा से किस दिशा में गमन करेंगी? ऐसा निर्णय पृथ्वी को गोल मानने पर कैसे हो सकेगा?
यदि पृथ्वी के भ्रमण से दिन-रात एवं ऋतु परिवर्तन होता है एवं भ्रमणशील पृथ्वी के जीवों को भ्रांति से अन्य आकाशीय पिण्ड भ्रमणशील दिखाई देते हैं, तो भी सम दिवा-रात्रि एवं ऋतु परिवर्तन में बाधा आती है। यदि पृथ्वी स्वयं के अक्ष में भ्रमण करने के लिए 23 घंटा 56 मिनट 4 सेकण्ड लेती है, तब उसका भ्रमण एक मिनट में 28 कि. मी. होता है। इतनी बड़ी पृथ्वी का इतनी तीव्र गति से परिभ्रमण करने पर भी, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन क्यों दिखाई नहीं देता है ? इतनी अधिक गति के कारण पृथ्वी में अत्यंत हलन-चलन होना चाहिये था। यदि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व दिशा की और भ्रमण करती है तब वायु को उसके विपरीत दिशा में अर्थात् पूर्व से पश्चिम की ओर सदा
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