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रोगनिवृत्ति नहीं हो सकती क्योंकि इसमें रसायन श्रद्धान और रसायन क्रिया का अभाव है। यदि किसी ने रसायन के ज्ञान मात्र से रसायन फल-आरोग्य देखा हो तो बतावे? परन्तु रसायन ज्ञान से आरोग्य फल मिलता नहीं है, न रसायन की क्रिया (अपथ्यत्यागादि) मात्र से रोग निवृत्ति होती है। क्योंकि इसमें रसायन के आरोग्यता गुण का श्रद्धान और ज्ञान का अभाव है तथा ज्ञानपूर्वक क्रिया से रसायन का सेवन किये बिना केवल श्रद्धान मात्र से भी आरोग्यता नहीं मिल सकती। इसलिये पूर्णफल की प्राप्ति के लिये रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक ही है। जिस प्रकार यह विवाद रहित हैउसी प्रकार दर्शन और चारित्र के अभाव में सिर्फ ज्ञान मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्षमार्ग के ज्ञान और तदनुरुप क्रिया के अभाव में सिर्फ श्रद्धान मात्र से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता और न ज्ञान, श्रद्धान, शून्य क्रिया मात्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है क्योंकि ज्ञान-श्रद्धानरहित क्रिया निष्फल होती
"हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः, पश्यन्नपि च पंगुल: (1) संयोगमेवेह वदन्ति तज्ज्ञा न ह्येकचक्रेण रथः प्रयाति।
अन्धश्च पङ्गुश्च वने प्रविष्टौ, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ॥"(2) कहा भी है - क्रियाहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और अज्ञानियों की क्रिया निष्फल होती है। दावानल से व्याप्त वन में जिस प्रकार अन्धा इधर-उधर भाग कर भी जल जाता है, उसी प्रकार लंगड़ा देखता हुआ भी जल जाता है, क्योंकि एक चक्र से रथ नहीं चल सकता है। अत: ज्ञान और क्रिया का संयोग ही कार्यकारी है- ऐसा विद्वानों का कथन है। एक अन्धा और एक लंगड़ा दोनों वन में प्रविष्ट थे। दोनों मिल गये तो नगर में आ गये। यदि अन्धा और लंगड़ा दोनों मिल जायें और अंधे के कन्धे पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का ही उद्धार हो जाय। लंगड़ा रास्ता बताकर ज्ञान का कार्य करे और अंधा पैरों से चलकर चारित्र का कार्य करे तो दोनों ही नगर में आ सकते हैं।
उपर्युक्त सिद्धान्त से सुनिश्चित निर्णय होता है कि रत्नत्रय ही मोक्ष मार्ग तथा मोक्ष स्वरूप है। इसलिए उमास्वामी ने प्रथम अध्याय में सम्यग्दर्शन
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