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जो अभी विदेहादि से मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे भी करेंगे और जो अभी विदेहादि से मोक्ष प्राप्त कर रहे हैं वे भी कर रहे हैं। इसलिए इस शास्त्र में निहित सत्य लिपिबद्ध रूप से सादि होते हुए भी भावात्मक रूप से अनादि अनन्त और शाश्वतिक है क्योंकि परम सत्य तीन काल में अपरिवर्तनशील रहता है तथा अनन्त सत्य दृष्टा जो सत्य का दर्शन करते हैं वह सत्य एक ही होता है। इसलिए अनन्तज्ञानियों का सिद्धान्त वचन एक ही होता है और एक अज्ञानी के मत एवं वचन अनेक होते हैं। अतएव आचार्य कुन्दकुन्द देव ने जो मोक्षमार्ग का वर्णन किया वह वर्णन भी तत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित वर्णन के समान ही है. मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं। .
मग्गो मोक्खउवायो, तस्स फलं होई णिव्वाणं॥[2] जिनेन्द्र भगवान के शासन में मार्ग और मार्ग का फल इस प्रकार से दो प्रकार
का कथन किया गया है, मोक्ष का उपाय मार्ग है और उस मार्ग का फल निर्वाण है।
णियमेव य जं कज्जं, तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीयपरिहरत्त्थं, भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।[3] जो नियम से करने योग्य है वह 'नियम' कहलाता है और वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र है। विपरीत का परिहार करने के लिए वास्तव में 'सार' ऐसा वचन कहा गया है। यहां पर नियम शब्द में 'सार' इस शब्द के प्रतिपादन द्वारा स्वभाव (सम्यक्) रत्नत्रय का स्वरूप कहा गया है। .
णियमं मोक्खउवायो, तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्हं पि य, पत्तेयपरूवणा होई॥[4] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय स्वरूप नियम मोक्ष का उपाय है। उसका फल परम निर्वाण है। पुनश्च इन तीनों में से प्रत्येक की प्ररुपणा होती है।
अत्तागमतच्चाणं, सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयअसेसदोसो, सयलगुणप्पा हवे अत्तो॥[5]
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