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उसी स्तोत्र का सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता) की सिद्धि के लिए मुझ विद्यानन्द ने अपनी शक्ति के अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
इस शास्त्र का इतना महत्त्व है कि भावपूर्वक इसका स्वाध्याय करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है । कुन्दकुन्द देव ने स्वाध्याय को परमतप कहा है। स्वाध्याय से पाँचों इन्द्रियाँ एवं मन, शरीर संयमित हो जाते हैं जिससे पाप कर्म की निर्जरा होती है सातिशय पुण्य बँधता है, आत्म विशुद्धि होती है इसलिए इसके पाठ से एक उपवास का फल लगता है। कहा भी है
दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थे पठिते सति । स्यादुपवासस्य भाषितं मुनिपुंगवैः ॥
फलं
दस अध्यायों में विभक्त इस तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र) के पाठ करने तथा परिच्छेदन अर्थात् मनन से श्रेष्ठ मुनियों ने एक उपवास का फल कहा है।
तत्त्वार्थसूत्र का अपरनाम मोक्षशास्त्र है। यह नाम अन्वर्थ संज्ञक है क्योंकि इसमें मोक्ष का, मोक्ष उपाय का सांगोपांग वर्णन है। प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्त करना चाहता है क्योंकि मोक्ष में ही शाश्वतिक सुख एवं शांति है। सुख एवं शांति प्रत्येक जीव को भाती है इसलिए वह चाहता है। यह जीव का स्वाभाविक गुण है। इस मोक्षशास्त्र में जो कुछ वर्णन किया गया है वह शाश्वतिक सत्य होने के कारण इसका वर्णन अन्य-अन्य जैनाचार्यों ने अपनी कृति में विभिन्न प्रणाली में किया हैं । इतना ही नहीं, गणधर एवं साक्षात् सर्वज्ञ अरिहन्त तीर्थंकर का भी यही उपदेश है। अभी तक जो अनन्त केवली हुए है, विदेहादि में केवली हैं, और आगे भी अनन्त केवली होंगे उनका भी यही उपदेश है। भले ही उस उपदेश में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लेकर अन्तर पड़ता है परन्तु शाश्वतिक सत्य एवं अन्तर्निहित तथ्यरूपी मोक्षमार्ग की प्ररूपणा, सत्य की प्ररूपणा है। इसलिए आचार्य उमास्वामी ने लिपिबद्ध रूप में जो सूत्रों का प्रणयन किया है भले ही इस सूत्र के रचनाकार आचार्य उमास्वामी को मान सकते है तथापि इस सत्य के साक्षात्कार करने वाले केवल उमास्वामी ही नहीं हैं, परन्तु जो अनन्त जीव अभी तक मोक्ष प्राप्त कर लिये हैं उन्होंने किया है और आगे भी अनन्त जीव जो मोक्ष प्राप्त करेंगे, वे भी करेंगे और
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