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सम्प्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूड़ामणिस्तद्वाचः परमास्तेऽत्र भरतक्षेत्रे जगढ्योतिका। सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवराँस्तेषा समालम्बनं।
तत्पूजा जिनवाचिपूजनमत: साक्षाज्जिनः पूजितः॥
वर्तमान में इस कलिकाल में तीन लोक के पूज्य केवली भगवान् इस भरत क्षेत्र में नहीं है तथापि समस्त भरतक्षेत्र में जगत्प्रकाशिनी केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी के आधार स्तम्भश्रेष्ठ रत्नत्रयधारी मुनि भी है। इसलिए उन मुनियों की पूजन तो सरस्वती की पूजन है तथा सरस्वती पूजन साक्षात् केवली भगवान् की पूजन है। ___उपरोक्त श्लोक में वर्णित भावना ही प्रबल उद्दीपक प्रेरणाप्रद कारण है जिसके कारण निस्पृह-शान्त निष्परिग्रही निर्ग्रन्थ जैन संत भी जो कि ख्याति-पूजा-लाभ-प्रशंसा-लोकपंक्ति-लोकसंग्रह की भावना से रहित होते हुए भी ग्रन्थों की रचना करते हैं। इसी प्रकार इस तत्त्वार्थसूत्र की रचना के पीछे भी कारण है। इस तत्त्वार्थ सूत्र में जैन धर्म के करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग सम्बन्धी समस्त विषय सूक्ष्म रूप से सूत्रबद्ध रूप में निबद्ध है। जैसे-हिन्दु धर्म में गीता, इस्लाम में कुरान, ईसाई धर्म में बाइबिल का स्थान महत्वपूर्ण है इसी तरह जैन धर्म में इस 'तत्त्वार्थसूत्र' का स्थान महत्त्वपूर्ण है इसलिए तो विद्यानंदी स्वामी आप्त परीक्षा में इसे बहुमूल्य रत्नों का उत्पादक, सलिलनिधि समुद्र कहा है
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भूतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत्। स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत्,
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै॥ प्रकृष्ट रत्नों के उद्भव के स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थ शास्त्ररूपी अद्भूत समुद्र की उत्पत्ति के प्रारम्भकाल में महान् मोक्षपथ को प्रसिद्ध करने वाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्र को शास्त्रकार गृद्धपिच्छाचार्य ने समस्त कर्ममल के भेदन करने के अभिप्राय से रचा है और जिसकी (समन्तभद्र) स्वामी ने मीमांसा की है,
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