SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नदियों के परिवार की संख्या परस्पर में समान है। इसी प्रकार अनेक विषयों में परस्पर में सदृश्यता है। त्रिलोकसार, त्रिलोकपण्णत्ति से विशेष वर्णन जानना। . भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल चक्र का परिवर्तन भरतैरावयतोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्। (27) In Bharata and Airavata Ksetras in the extreme south and north of Jambudivpa there is increase and descrease of (bliss, age, height etc of their inhabitants in the 2 aeons), (उत्सर्पिणी) and (अवसर्पिणी) (the aeons of increase and decrease respectivaly). There are 6 ages (in each aeon). भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है। ___ यह वृद्धि और हास क्षेत्र के नहीं होते हैं परन्तु वहां निवास करने वाले मनुष्यों, तिर्यंचों के अनुभव, प्राणादि के हैं। उपभोग और परिभोग की सम्पदा का नाम अनुभव है। जीवन का परिमाण आयु है। शरीर के उत्सेध को प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार शरीर की ऊँचाई, आयु, वैभव आदि कृत मनुष्यों की वृद्धि हास जानना चाहिये। शंका- यह वृद्धि हास किस कारण से होता है? समाधान- यह वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होता है। उत्सपिर्णी और अवसपिर्णी के भेद से काल दो प्रकार के हैं और उनके प्रत्येक के छह-छह भेद हैं(1) अवसर्पिणी- अनुभव आदि के द्वारा अवसर्पणशील अवसर्पिणीकाल है। जिसमें आयु, अनुभव, शरीरादि की उत्तरोत्तर अवनति-हानि होती है उत्तरोत्तर आयु आदि का घटना जिसका स्वभाव है वह अवसर्पिणी है। (2) उत्सर्पिणी- इसके विपरीत उत्सर्पिणी है। जिस काल में अनुभव, आयु, शरीरादि की उत्तरोत्तर उन्नति हो वह उत्सर्पिणी काल है। यह अवसर्पिणी काल छह प्रकार का है- (1) सुषमा सुषमा (2) सुषमा (3) सुषमा दुःषमा (4) दुःषमा सुषमा (5) दुःषमा (6) अति दुःषमा। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों का ही काल दस-दस कोड़ाकोड़ी सागर 213 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy