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________________ रौप्यं सुवर्णं वजं च हरितालं च हिङ्गलम्। मन:शिला तथा तुत्थमज्जनं सप्रवालकम्॥(59) क्रिरोलकाभ्रके चैव मणिभेदाश्च वादराः। गोमेद रूचकाङ्कच स्फटिको लोहितप्रभः॥ (60) वैडूर्य चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः। गैरिकाश्चन्दनश्चैव वर्चुरो रूचकस्तथा॥ (61) मोठो मसारगल्लच सर्व एते प्रदर्शिताः। . षट्त्रिंशत्पृथिवीभेदा भगवद्धिजिनेश्वरैः।। (62) (1) मिट्टी, (2) रेत, (3) चुनकंकरी, (4) पत्थर, (5)शिलाएँ, (6) नमक, (7) लोहा, (8) ताबाँ, (9) रांगा, (10) सीसा, (11) चाँदी, (12) सोना, (13) हीरा (14) हरताल, (15) इंगुर, (16) मैनसिल, (17) तूतिया, (18) सूरमा, (19) मूंगा, (20) क्रिरोलक, (21) भोड़ल बड़ी-बड़ी मणियों के खण्ड, (22) गोमेद, (23) रूचकाङ्क (24) स्फटिक (25) पद्मराग, (26) वैडूर्य, (27) चन्द्रकान्त, (28) जलकान्त, (29) सूर्यकान्त, (30) गैरिक, (31) चन्दन, (32) वर्चुर, (33) रूचक, (34) मोठ, (35) मसार और (36) गल्ल नामक मणि ये सब पृथिविकायिक के छत्तीस भेद जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। जलकायिक जीवों के भेदअवश्यायो हिमबिन्दुस्तथा शुद्धघनोदके। . शीतकाद्याश्च विज्ञेया जीवा: सलिलकायिकाः॥(63) ओस, बर्फ के कण-शुद्धोदक-चन्द्रकान्तमणि से निकला पानी, मेघ से तत्काल वर्षा हुआ पानी तथा कुहरा आदि जलकायिक जीव जानने के योग्य हैं। अग्निकायिक जीवों के भेदज्वालाङ्गरास्तथार्चिश्च मुर्मुरः शुद्ध एव च। अग्निश्चेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिका।। (64) ज्वालाएँ, अंगार, अर्चि-अग्नि की किरण, मुर्मर-अग्निकण (भस्म के भीतर छिपे हुए अग्नि के छोटे-छोटे कण) और शुद्ध अग्नि-सूर्यकान्तमणि से उत्पन्न ___ 133 __www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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