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दृष्टान्त का कथन है-:
अंडेसु पवड्ढता गव्भत्था माणुसा य मुच्छगया । जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया ।। (113)
अंड़े में वृद्धि पाने वाले प्राणी, गर्भ में रहे हुए प्राणी और मूर्छा प्राप्त मनुष्य जैसे (बुद्धिपूर्वक व्यापार रहित होते हुए भी) जीव हैं, वैसे ही एकेन्द्रिय भी जीव जानना ।
जैसे अंड़ों के भीतर के तिर्यंच व गर्भस्थ पशु या मनुष्य या मूर्च्छागत. : मानव इच्छापूर्वक व्यवहार करते नहीं दिखते हैं वैसे इन एकेन्द्रियों को जानना चाहिए अर्थात् अंडो में जनमने वाले प्राणियों के शरीर की पुष्टि या वृद्धि को देखकर बाहरी व्यापार करना न दिखने पर भी भीतर चैतन्य है ऐसा जाना जाता है, यही बात गर्भ में आये हुए पशु या मानवों की भी है। गर्भ बढ़ता जाता है इसी से चेतना की सत्ता मालूम होती है। मूर्च्छागत मानव तुरंत मूर्छा छोड़ सचेत हो जाता है। इसी ही तरह एकेन्द्रियों के भीतर भी जानना चाहिए । जब गर्भस्थ शरीर या अण्डे या मूर्च्छा प्राप्त प्राणी म्लानित हो जाते अर्थात् बैढ़ते नहीं या उनके शरीर की चेष्टा बिगड़ जाती तब यह अनुमान होता है कि, उनमें जीव नहीं रहा । उस ही तरह एकेन्द्रिय जीव जब म्लानित या मर्दित हो जाते हैं तब वे जीव रहित अचित हो जाते हैं।
पृथ्वीकायिक आदि जीवों का आकार मसूराम्बुपृषत्सूचिकलापध्वजसन्निभाः । नानाकारास्तरुत्रसाः ।। ( 57 )
धराप्तेजोमरुत्काया
(त.सा. पृ. 51 )
पानी
पृथिवी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीवों का आकार क्रम से मसूर, की बूँद, खड़ी सुइयों का समूह तथा ध्वजा के समान है। वनस्पतिकायिक और सजीव अनेक आकार के होते हैं।
पृथिवीकायिक जीवों के छत्तीस भेद
मृत्तिका बालुका चैव शर्करा चोपल: शिला । - लवणोऽयस्तथा ताम्रं त्रपुः सीसकमेव च ।। (58)
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