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गोम्मट्टसार में कहा भी है
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भविया सिद्धि जेसिं, जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा । तव्विवरीयाऽभव्वा, संसारादो ण सिज्झति ॥
(557 पृ.250)
जिन जीवों की अनन्त चतुष्टरूप सिद्धि होने वाली हो अथवा जो उसकी प्राप्ति के योग्य हों उनको भवसिद्ध कहते हैं। जिनमें इन दोनों में से कोई भी लक्षण घटित न हो उन जीवों को अभव्यसिद्ध कहते हैं ।
कितने ही भव्य ऐसे हैं जो मुक्ति प्राप्ति के योग्य हैं, परन्तु कभी मुक्त न होंगे; जैसे बन्ध्या के दोष से रहित विधवा सती स्त्री में पुत्रोत्पत्ति की योग्यता है; परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न नहीं होगा। इसके सिवाय कोई भव्य ऐसे हैं जो नियम से मुक्त होगें। जैसे बन्ध्यापने के दोष से रहित स्त्री के निमित्त मिलने पर नियम से पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह योग्यता भेद के कारण भव्य दो प्रकार के हैं। इन दोनों योग्यताओं से जो रहित है उनको अभव्य कहते हैं। जैसे बन्ध्या स्त्री के निमित्त मिले चाहे न मिले, परन्तु पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है। जिनमें मुक्ति प्राप्ति की योग्यता है उनको भव्यसिद्ध कहते हैं । इस अर्थ को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं
भव्वत्तणस्य जोग्गा, जे जीवा ते हंवति भवसिद्धा ।
ण हु मलविगमेणियमा, ताणं कणयोवलाणमिव ॥ (558)
जो जीव अनन्त चतुष्टयरूप सिद्धि की प्राप्ति के योग्य हैं; उनको भवसिद्ध कहते हैं किन्तु यह बात नहीं है कि इस प्रकार के जीवों का कर्ममल नियम से हो ही। जैसे- कनकोपल का ।
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ऐसे ही बहुत से कनकोपल हैं जिनमें कि निमित्त मिलाने पर शुद्ध स्वर्णरूप होने की योग्यता तो है, परन्तु उनकी इस योग्यता की अभिव्यक्ति कभी नहीं होगी । अथवा जिस तरह अहमिन्द्र देवों में नरकादि में गमन करने की शक्ति है परन्तु उस शक्ति की अभिव्यक्ति कभी नहीं होती। इस ही तरह जिन जीवों में अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है परन्तु उनको वह कभी प्राप्त नहीं होगी उनको भी भवसिद्ध कहते हैं । ये जीव भव्य होते हु भी सदा संसार में ही रहते हैं।
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