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का निमित्त पाकर होती है इसलिये कषाय औदयिकी कही जाती है। यह लेश्या छह प्रकार की है- कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल। आत्मपरिणामों की अशुद्धि के तारतम्य की अपेक्षा कृष्णादि शब्दों का उपचार किया जाता है।
पारिणामिक भाव के भेद
जीवभव्याभव्यत्वानि च। (7) The 3 kinds of the souls natural thought activity are; 1. जीवत्व Consciousness, livingness or Soulness in a Soul. 2. भव्यत्व Capacity of being liberated. 3. अभव्यत्व Incapacity of becoming liberated पारिणामिक भाव के तीन भेद है:
(1) जीवत्व (2) भव्यत्व (3) अभव्यत्व।
जो भाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, उन्हें पारिणामिकभाव कहते हैं। ये पारिणामिक भाव अन्य द्रव्यों में नहीं होते इसलिए ये आत्मा के जानने चाहिए। (1) जीवत्व:- जीवत्व का अर्थ चैतन्य है। यद्यपि यह जीव शुद्धनिश्चयनय से आदि, मध्य और अन्त से रहित, निज तथा पर का प्रकाशक, उपाधिरहित और शुद्ध ऐसा जो चैतन्य (ज्ञान) रूप निश्चय प्राण है, उससे जीता है, तथापि अशुद्धनिश्चयनय से अनादिकर्मबन्धन के वश से अशुद्ध जो द्रव्य प्राण और भाव प्राण है, उनसे जीता है इसलिये जीव है। इसका जो भाव है वह जीवत्व
(2) भव्यत्व:- जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कहलाता है। अथवा भावी भगवान को भव्य कहते हैं। इसका भाव भव्यत्व है। (3) अभव्यत्व:- जिसमें सम्यग्दर्शनादिरूप परिणमन करने की शक्ति नहीं है वह अभव्य है। इसका जो भाव है वह अभव्यत्व है।
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