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________________ के उदय से होता है इसलिये औदयिक है। जैसे-जो एकेन्द्रिय के रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोतेन्द्रियावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से रस, गन्ध, शब्द, रूप का अज्ञान रहता है- वह औदयिक अज्ञान है, ऐसा दो इन्द्रियआदि का भी समझना चाहिये। शुक, सारिकादि (तोता मैना आदि) को छोड़कर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तथा कुछ मनुष्यों में अक्षर श्रुतावरण के सर्वघातिस्पर्धकों का उदय होने से अक्षर श्रुतज्ञान नहीं होता। वह अक्षर श्रुतज्ञान औदयिक है। नो इन्द्रियावरण कर्म के सर्वघाति स्पर्द्धकों का उदय होने पर जीव हिताहित की परीक्षा करने में असमर्थ होता है, वह असंज्ञित्व अज्ञान औदयिक भाव में गर्भित है। इसी प्रकार अवधिज्ञानावरण, मन: पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण के उदय से होने वाला अज्ञान औदयिक कहलाता है। ऐसा जानना चाहिये। (6) असंयम- चारित्र मोह के उदय से होने वाले हिंसादि पापों से एवं इन्द्रिय विषयों से अनिवृत्तिपरिणाम असंयम है। अर्थात् चारित्र मोहकर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से प्राणिघात, असत्यभाषण आदि पापों में तथा पंचेन्द्रियों के विषयों में द्वेष एवं अभिलाषा रूप परिणामों की निवृत्ति नहीं होना, असंयम भाव है। यह असंयमभाव चारित्रमोह के उदय से होता है इसलिये औदयिक भाव है। (7) असिद्धत्व-कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा असिद्धत्व भाव होता है। अनादि कर्मबन्ध- सन्तान के कारण परतंत्र हुए आत्मा के सामान्यतः सभी कर्मों का उदय होने पर असिद्धत्वपर्याय होती है। यह कर्मों के उदय की अपेक्षा से होती है इसलिये औदयिकी है। यह असिद्धत्वपर्याय मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मों के उदय की अपेक्षा से है। उपशान्तमोही. ग्यारहवें और क्षीणमोही बारहवें गुणस्थान में सात कर्मों के उदय की अपेक्षा और सयोग केवली एवं अयोग केवली गुणस्थान ये चार अघातियां कर्मों के उदय के कारण असिद्धत्व भाव है। (8) षट् लेश्या- कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्तिं लेश्या है। द्रव्यलेश्या और भावलेश्या के भेद से लेश्या दो प्रकार की हैं। द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होती है। अत: आत्मभावों के प्रकरण में उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया है। भावलेश्या कषाय के उदय से अनुरंजित योगवृत्ति 119 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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