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________________ मनुष्यगति नामकर्म के उदय से मनुष्यगति और देव नामकर्म के उदय से देवगति प्राप्त होती है। ये चारों गतिरूप भाव नामकर्म के उदय से होते हैं- इसलिए औदयिक भाव है। (2) चार कषाय:- चारित्रमोह कर्मविशेष के उदय से आत्मा के कलुष भाव होते हैं, वह कषाय औदयिक है। कषाय नामक चारित्रमोह के उदय से होने वाली क्रोधादिरूप कलुषता कषाय कहलाती है। यह आत्मा के स्वाभाविक रूप को कष देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है। यह, क्रोध, मान, माया और लोभ चार कषायरूप हैं। अनन्तानुबंधी- क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान- क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यान- क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय के ये 16 भेद भी हैं। ये मोहकर्म के उदय से होते हैं इसलिए औदयिक भाव हैं। (3) तीन लिंग- वेद के उदय से उत्पन्न अभिलाषा विशेष को "वेद" कहते हैं। द्रव्य और भाव के भेद से लिंग दो प्रकार का है। यहाँ इस सूत्र में आत्मा के भावों का प्रकरण है- इसलिये नामकर्म के उदय से होने वाले द्रव्यलिंग की यहाँ विवक्षा नहीं है। स्त्री, पुरुष और नपुंसक के अन्योन्य अभिलाषा भावलिंग आत्मा का परिणाम है। जिसके उदय से स्त्री के साथ रमण करने की अभिलाषा होती है, वह पुरुषवेद है। जिसके उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा होती है, वह स्त्रीवेद है। जिसके उदय से स्त्री एवं पुरुष दोनों के साथ रमण करने की उभयाभिलाषा होती है, वह नपुंसकवेद है। यह अभिलाषा चूंकि चारित्र मोह के विकल्प नोकषाय के भेद स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक वेद के उदय से होती है इसलिये वेद औदयिक भाव है। (4) मिथ्यादर्शन-दर्शन मोह के उदय से तत्त्वार्थ में अश्रद्धान परिणाम मिथ्यादर्शन है। तत्त्वरूचि स्वभाव वाले आत्मा के श्रद्धान के प्रतिबंधक कारण दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ का निरूपण करने पर भी तत्त्व में श्रद्धान उत्पन्न नहीं होता। इसलिये मिथ्यादर्शन औदयिक भाव है। (5) अज्ञान- ज्ञानावरणी के उदय से अज्ञान होता है। जैसे प्रकाशमान सूर्य का तेज सघन मेघों द्वारा तिरोहित हो जाने पर अभिव्यक्त नहीं होता है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के उदय से ज्ञानस्वभाव आत्मा के ज्ञानगुण की अनभिव्यक्ति (अप्रगटता) होती है, वह अज्ञान है और वह अज्ञान भाव ज्ञानावरण कर्म 118 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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