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ण य जे भव्वाभव्वा, मुक्तिसुहातीदणंतसंसारा।
ते जीवा णायव्वा, णेव य भव्वा अभव्वा य॥(559) जिनका पांच परिवर्तनरूप अनन्त संसार सर्वथा छूट गया है और इसलिये जो मुक्ति सुख के भोक्ता हैं उन जीवों को न तो भव्य समझना और न अभव्य समझना चाहिये; क्योंकि अब उनको कोई नवीन अवस्था प्राप्त करना शेष नहीं रही है। इसलिये भव्य भी नहीं हैं। और अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर चुके हैं इसलिये अभव्य भी नहीं है।
जिनमें अनंत चतुष्टय के अभिव्यक्त होने की योग्यता ही नहीं हो उसको अभव्य कहते हैं। अत: मुक्त जीव अभव्य भी नहीं है; क्योंकि इन्होंने अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लिया है। और "भवितुं योग्या भव्या" इस निरूक्ति के अनुसार भव्य उनको कहते हैं जिनमें कि, अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की योग्यता है। किन्तु अब वे उस अवस्था को प्राप्त कर चुके, इसलिये उनके भव्यत्व रूप योग्यता का परिपाक हो चुका अतएव अपरिपक्व अवस्था की अपेक्षा से भव्य भी नहीं है।
जीव का लक्षण
उपयोगो लक्षणम्। (8) The lakshna or differentia of soul is upayoga, attention, consiousness, attentiveness. उपयोग जीव का लक्षण है।
इस सूत्र में जीव के महत्वपूर्ण सद्भूत लक्षण का वर्णन है। पहले अध्याय में जीव के ज्ञान गुण का वर्णन मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है तो इस अध्याय में भी जीव के भावों का वर्णन असाधारण मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है। उपयोग जीव के असाधारण भाव या लक्षण होने के कारण यह भाव अन्य अजीव पदार्थ में नहीं पाया जाता है तथा किसी भी रसायनिक प्रक्रिया से उपयोग शक्ति की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। डार्विन आदि वैज्ञानिक जो रसायनिक प्रक्रिया से जीव की उत्पत्ति मानते है वह सिद्धांत कपोल-कल्पित, अविचारित रम्य है। इस सिद्धांत का खण्डन मेरी (कनकनंदी) "विश्व विज्ञान रहस्य" पुस्तक में किया है। जिज्ञासु वहाँ से देखकर अध्ययन करें।
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