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औपशमिक चारित्र Subsidential right conduct. औपशमिक भाव के दो भेद हैं- औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक चारित्र। चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं- कषायवेदनीय और नो-कषाय वेदनीय। इनमें से कषाय वेदनीय के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद
और दर्शन मोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन भेद। इन सात के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है।
काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बतलाते हैं। कर्मयुक्त कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने के योग्य होता है इनसे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि का सम्बन्ध कर्म स्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता। परन्तु जब बंधने वाले कर्मों की स्थिति अन्त: कोडाकोडी सागर पड़ती है और विशुद्धि परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है- जो भव्य है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। ‘आदि' शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए। __समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है। इनमें से 'सम्यक्त्व' पद को आदि में रखा है क्योंकि चारित्र सम्यक्त्व पूर्वक होता
. क्षायिक भाव के नौ भेद __. 'ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च। (4) . (The nine kinds are) knowledge, conation, charity, gain, enjoyment, re-enjoyment, power and (belief and conduct.) . क्षायिक भाव के नौ भेद हैं- क्षयिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और
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