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________________ एवम्भूतनय का लक्षण शब्द जिस रूप में प्रचलित है उसका उसी रूप में जो नय निश्चय कराता है माननीय मुनि उसे 'एवम्भूतनय' कहते हैं। जैसे इन्द्रंशब्द का व्युत्पत्यर्थ 'इन्दतीति इन्द्र' ऐश्वर्य का अनुभव करने वाला है इसलिये यह नय इन्द्र को उसी समय इन्द्र कहेगा जबकि वह ऐश्वर्य का अनुभव कर रहा होगा, अभिषेक या पूजन करते समय इन्द्र को इन्द्र नहीं कहेगा। तात्पर्य यह है कि समभिरूढनय. : शब्द के वाच्यार्थ को ग्रहण करता है और एवं भूतनय निरूक्त अर्थ को । प्रकारान्तर से नय के भेद एवं स्वरूप का वर्णन यहाँ दे रहे है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का स्वरूप द्रव्यपर्यायरूपस्य सकलस्यापि नयावंशेन द्वौ शब्दो येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययेत् । यो नयो मुनयो मान्यास्तमेवंभूतमभ्यधुः ।। (50) 108 Jain Education International नेतारौ अनुप्रवृत्तिः सामान्यं द्रव्यं नयस्तद्विषयोयः स्याज्ज्ञेयो व्यावृतिश्च विशेषश्च पर्यायविषयो यस्तु स वस्तुन: । द्रव्यपर्यायार्थिकौ ॥ (38) संसार की सभी वस्तुएँ द्रव्य और पर्यायरूप हैं। वस्तु की इन दोनों रूपता को एक अंश से ग्रहण करने वाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय है। अर्थात् जब वस्तु की द्रव्यरूपता को ग्रहण किया जाता है तब द्रव्यार्थिक नय का उदय होता है । और जब वस्तु की पर्यायरूपता को ग्रहण किया जाता. है तब पर्यायार्थिक का उदय होता है। अनुप्रवृति सामान्य और द्रव्य ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं अर्थात् तीनों का एक ही अर्थ होता है। जो नय इन्हें विषय करता है वह द्रव्यार्थिक नय है । व्यावृत्ति, विशेष और पर्याय ये तीनों शब्द एकार्थवाची हैं। जो नय पर्याय को विषय करता है वह पर्यायार्थिकनय कहलाता है। (पृ.17) चैकार्थवाचकाः । द्रव्यार्थिको हि सः ॥ (39) पर्यायश्चैकवाचकाः । पर्यायार्थिको मतः ॥ ( 40 ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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